Academy Last Update - 2023-06-07
चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत में और पास के अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया। चोल साम्राज्य का अभ्युदय 9वीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था।
इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात 12वीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का स्वर्ण युग था।
चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की, जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा।
राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई. में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा, लेकिन 965 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।
उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी चोल राजवंश का प्रथम शासक था। उसने अपनी राजधानी उरैपुर में स्थापित की थी। वैलिर वंश से उसके वैवाहिक सम्बन्ध थे। वह युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अपने सुन्दर रथों के लिए प्रसिद्ध था।
करिकाल चोल शासकों में एक महत्त्वपूर्ण शासक था। इसे जले हुए पैरों वाला कहा गया है। इस साम्राज्य विस्तारवादी शासक ने अपने शासन के शुरुआती वर्षों में वण्णि नामक स्थान पर बेलरि तथा अन्य ग्यारह शासकों की संयुक्त सेना को पराजित कर प्रसिद्धि प्राप्त की थी। उसकी दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता थी- वहैप्परन्लई के 9 छोटे-छोटे शासकों की संयुक्त सेना को पराजित करना। इस प्रकार करिकाल ने पूरे तमिल प्रदेश को अपनी भुजाओं के पराक्रम के द्वारा अपने अधीन कर लिया था। उसके शासनकाल में पाण्ड्य साम्राज्य एवं चेर वंश के शासक महत्त्वहीन हो गये थे। संगम साहित्य के अनुसार- करिकाल ने कावेरी नदी के मुहाने पर पुहार पत्तन (कावेरीपट्नम) की स्थापना की।
विजयालय (850-875 ई.) ने 9वीं शताब्दी के मध्य लगभग 850ई. में चोल शक्ति का पुनरुत्थान किया। विजयालय को चोल राजवंश का द्वितीय संस्थापक भी माना जाता है। आरम्भ में चोल पल्लवों के सामन्त थे। विजयालय ने पल्लवों की अधीनता से चोल मण्डल को मुक्त किया और स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना शुरू किया। उसने पाण्ड्य साम्राज्य के शासकों से तंजौर (तंजावुर) को छीनकर उरैयूर के स्थान पर इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। तंजौर को जीतने के उपलक्ष्य में विजयालय ने नरकेसरी की उपाधि धारण की थी।
आदित्य प्रथम (875-907 ई.), चोडराज विजयालय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। विजयालय के बाद आदित्य प्रथम लगभग 875 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। 890 ई. के लगभग उसने पल्लवराज अपराजितवर्मन को परास्त कर तोंडमंडलम् को अपने राज्य में मिला लिया। उसने पल्लव नरेश अपराजित को पाण्ड्य नरेश वरगुण के ख़िलाफ़ संघर्ष में सैनिक सहायता दी थी। इस सैनिक सहायता के बल पर इस संघर्ष में नरेश अपराजित विजयी हुआ, किन्तु कालान्तर में आदित्य प्रथम ने अपनी साम्राज्य विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा के वशीभूत होकर अपराजित को एक युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी और इस तरह पल्लव राज्य पर चोलों का अधिकार हो गया। आदित्य प्रथम के मरने तक उत्तर में कलहस्ती और मद्रा तथा दक्षिण में कावेरी तक का सारा जनपद चोलों के शासन में आ चुका था।
परान्तक प्रथम (907-953 ई.), आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद चोल राजवंश की राजगद्दी पर बैठा। उसने पाण्ड्य नरेश राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण कर पाण्ड्यों की राजधानी मदुरै पर अधिकार कर लिया। इसी हार का बदला लेने के लिए पाण्ड्य नरेश ने श्रीलंका के शासक से सैनिक सहायता प्राप्त कर परान्तक के ख़िलाफ़ युद्ध किया। जिस समय परान्तक सुदूर दक्षिण के युद्ध में व्याप्त था, कांची के पल्लव कुल ने अपने लुप्त गौरव की पुनः प्रतिष्ठा का प्रयत्न किया। पर चोलराज ने उसे बुरी तरह से कुचल डाला और भविष्य में पल्लवों ने फिर कभी अपने उत्कर्ष का प्रयत्न नहीं किया।
राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (940-968) ने दक्षिण के इस नए शत्रु का सामना करने के लिए विजय यात्रा प्रारम्भ की और कांची को एक बार फिर राष्ट्रकूट साम्राज्य के अंतर्गत ला किया। पर कृष्ण तृतीय केवल कांची की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने दक्षिण दिशा में आगे बढ़कर तंजौर पर भी आक्रमण किया, जो इस समय चोल राज्य की राजधानी था। परान्तक प्रथम के बाद क्रमशः गंडरादित्य (953 से 956 ई.) परान्तक द्वितीय (956 से 973 ई.) एवं उत्तम चोल वंश के शासक हुए। इनमें सबसे योग्य परान्तक द्वितीय ही था।
परान्तक द्वितीय (956-973 ई.) को चोल राजवंश के शासक सुन्दरचोल के नाम से भी जाना जाता था। उसने तत्कालीन पाण्ड्य शासक वीर पाण्ड्य को चेबूर के मैदान में पराजित किया था।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) अथवा अरिमोलिवर्मन परान्तक द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, परान्तक द्वितीय के बाद चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के 30 वर्ष चोल साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उसने अपने पितामह परान्तक प्रथम की लौह एवं रक्त की नीति का पालन करते हुए राजराज की उपाधि ग्रहण की।
राजेन्द्र प्रथम (1014-1044ई.) राजराज प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 1014 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। राजेन्द्र अपने पिता के समान ही साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का था। उसकी उपलब्धियों के बारे में सही जानकारी तिरुवालंगाडु एवं करंदाइ अभिलेखों से मिलती है। अपने विजय अभियान के प्रारम्भ में उसने पश्चिमी चालुक्यों, पाण्ड्यों एवं चेरों को पराजित किया। इसके बाद लगभग 1017 ई. में सिंहल (श्रीलंका) राज्य के विरुद्ध अभियान में उसने वहां के शासक महेन्द्र पंचम को परास्त कर सम्पूर्ण सिंहल राज्य को अपने अधिकार में कर लिया।
सिंहली नरेश महेन्द्र पंचम को चोल राज्य में बंदी के रूप में रखा गया। यही पर 1029 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। सिंहल विजय के बाद राजेन्द्र चोल ने उत्तर पूर्वी भारतीय प्रदेशों को जीतने के लिए विशाल हस्ति सेना का इस्तेमाल किया। राजेन्द्र प्रथम के सामरिक अभियानों का महत्त्वपूर्ण कारनामा था- उसकी सेनाओं का गंगा नदी पार कर कलिंग एवं बंगाल तक पहुंच जाना। कलिंग में चोल सेनाओं ने पूर्वी गंग शासक मधुकामानव को पराजित किया। सम्भवतः इस अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में विक्रम चोल द्वारा किया गया। गंगा घाटी के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र प्रथम ने गंगैकोण्डचोल की उपाधि धारण की तथा इस विजय की स्मृति में कावेरी तट के निकट गंगैकोण्डचोल नामक नई राजधानी का निर्माण करवाया।
राजाधिराज प्रथम (1044-1052 ई.), राजेन्द्र प्रथम का पुत्र था और उसके बाद राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी था। उसकी शक्ति का उपयोग प्रधानतया उन विद्रोहों को शान्त करने में हुआ, जो उसके विशाल साम्राज्य में समय-समय पर होते रहते थे। विशेषतया, पाड्य, चेर वंश और सिंहल (श्रीलंका) के राज्यों ने राजाधिराज के शासन काल में स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर चोलराज ने उन्हें बुरी तरह से कुचल डाला। उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से हुआ। राजाधिराज ने तत्कालीन चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल को पराजित कर चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज ने अपना वीरभिषेक करवाकर विजय राजेन्द्र की उपाधि ग्रहण की थी।
राजेन्द्र द्वितीय (1052-1064 ई.) चोल सम्राट राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.) का द्वितीय पुत्र और राजाधिराज (1044-1052 ई.) का छोटा भाई था। कोप्पम के युद्ध में जब राजेन्द्र द्वितीय का बड़ा भाई राजाधिराज कल्याणी के शासक सोमेश्वर आहवमल्ल के द्वारा मारा गया, तब वहीं रणभूमि में ही राजेन्द्र द्वितीय ने अपने भाई का मुकुट सिर पर धारण कर लिया और युद्ध जारी रखा। राजेन्द्र द्वितीय की उपाधि प्रकेसरी थी। उसके समय में भी चोल-चालुक्य संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था। राजेन्द्र द्वितीय ने कुंडलसंगमम् में चालुक्य सेना को पराजित किया था। सोमेश्वर प्रथम ने कुंडलसंगमम् के युद्व में पराजित होने के पश्चात् नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। उसने अपनी लड़की का विवाह पूर्वी चालुक्य नरेश राजेन्द्र के साथ किया था।
राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई वीर राजेन्द्र गद्दी पर बैठा। उसने लगभग 1060 ई. में अपने परम्परागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को ‘कुडलसंगमम्’ के मैदान में पराजित किया। इस विजय के उपलक्ष्य में वीर राजेन्द्र ने तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजयस्तम्भ की स्थापना करवाई। पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के ख़िलाफ़ एक अन्य अभियान में कम्पिलनगर को जीतने के उपलक्ष्य में करडिग ग्राम में एक और विजयस्तम्भ स्थापित करवाया था। वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर द्वितीय के छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ, जो कि सोमेश्वर द्वितीय के विरुद्ध था, के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर पश्चिमी चालुक्यों के साथ सम्बन्धों के नए अध्याय की शुरुआत की।
वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र (1070 ई.) चोल की गद्दी पर बैठा। अधिराजेन्द्र परान्तक का वंशधर था। वह चोल साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण रखने में असमर्थ रहा। अधिराजेन्द्र शैव धर्म का अनुयायी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि, रामानुज को उसके राज्य काल में श्रीरंगम छोड़कर अन्यत्र चले जाना पड़ा। उसके शासन काल में सर्वत्र विद्रोह शुरू हो गए और इन्हीं के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपने राज्य के पहले साल में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया। इस अशांतिमय परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर कुलोत्तुंग प्रथम चोल राजसिंहासन पर बैठा। इसके बाद का चोल इतिहास चोल-चालुक्य वंशीय इतिहास के नाम से जाना जाता है।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.) चोल राजवंश के सबसे पराक्रमी शासकों में से एक था। उसने चोल साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करने के कार्य में अदभुत पराक्रम प्रदर्शित किया था। इसके पूर्व शासक अधिराजेन्द्र के कोई भी सन्तान नहीं थी, इसलिए चोल राज्य के राजसिंहासन पर वेंगि का चालुक्य राजा कुलोत्तुंग प्रथम को बैठाया गया था। यह चोल राजकुमारी का पुत्र था। किंतु कुलोत्तुंग के शासन काल में राज्य की शक्ति काफ़ी हद तक क़ायम रही। उसने दक्षिण के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को पराजित किया। इसका उल्लेख विल्हण के विक्रमांकदेवचरित में मिलता है। 1075-76 ई. में कुलोत्तंग ने कलचुरी शासक यशकर्णदेव को तथा 1100 ई. में कलिंग नरेश अनन्तवर्मा चोडगंग को पराजित किया।
विक्रम चोल (1120-1133 ई.) कुलोत्तुंग प्रथम का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद वह चालुक्य साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन हुआ था। विक्रमादित्य षष्ठ के मरने के बाद विक्रम चोल ने पुनः वेंगी पर अधिकार कर लिया। 1133 ई. के लगभग उसने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय को पराजित किया। विक्रम चोल अपने पिता की नतियों एवं आदर्शों के बिल्कुल प्रतिकूल प्रवृत्ति का था। वह धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु प्रवृत्ति का व्यक्ति था। विक्रम चोल ने चिदंबरम् के नटराज मंदिर को अपार दान दिया था। उसने ‘अकलक’ एवं ‘त्याग समुद्र’ की उपाधियाँ धारण की थीं।
कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150 ई.) विक्रम चोल का पुत्र था। वह अपने पिता के बाद चोल राजवंश का अगला राजा नियुक्त हुआ था।कुलोत्तुंग ने चिदम्बरम मंदिर के विस्तार एवं प्रदक्षिणापथ को स्वर्णमंडित कराने के कार्य को जारी रखा। चोल राजवंश के इस शासक ने चिदम्बरम मंदिर में स्थित गोविन्दराज की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। इस शासक की कोई भी राजनीतिक उपलब्धि नहीं थी। कुलोत्तंग द्वितीय और उसके सामन्तों ने ओट्टाकुट्टन, शेक्किलर और कंबल को संरक्षण दिया था। कुलोत्तंग ने कुंभकोणम के निकट तिरुभुवन में कम्पोरेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था।
आयम | राजस्व कर |
मरमज्जाडि | वृक्ष कर |
कडमै | सुपारी पर कर |
मनैइरै | गृह कर |
कढै़इरै | व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर लगने वाला कर |
पेविर | तेलघानी कर |
किडाक्काशु | नर पशुधन कर |
कडिमै | लगान |
पाडिकावल | ग्राम सुरक्षा कर |
वाशल्पिरमम | द्वार कर |
मगन्मै | व्यवसाय कर |
आजीवक्काशु | आजीविका पर लगने वाला कर |
चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है। इनके शिखरस्तंभ छोटे होते हैं, किंतु गोपुरम् पर अत्यधिक अलंकरण होता है। प्रारंभिक चोल मंदिर साधारण योजना की कृतियाँ हैं लेकिन साम्राज्य की शक्ति और साधनों की वृद्धि के साथ मंदिरों के आकार और प्रभाव में भी परिवर्तन हुआ।
इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तंजोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर, राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगैकोंडचोलेश्वर मंदिर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं। इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं।