उत्तर वैदिक काल(1000-600 ई.पू.)-

  Last Update - 2023-06-05

  • अतरंजीखेङा सर्वप्रथम लौह उपकरण अतरंजीखेङा से ही प्राप्त हुए हैं तथा यहां से सर्वाधिक लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त लौह उपकरण हमें उत्तरवैदिक काल की जानकारी प्रदान करते हैं।
  • इसमें ऋग्वैदिक मंत्रों को गाने योग्य बनाया गया है।
  • इस में यज्ञों की विधियों का वर्णन मिलता है, यह कर्मकांडीय ग्रंथ है।
  • यह आर्य संस्कृति के साथ-साथ अनार्य संस्कृति से भी संबंधित है। अतः इस वेद को पूर्व के तीन वेदों के समान महत्व प्राप्त नहीं है और इसे वेदत्रयी में शामिल नहीं किया गया है।
  • इनमें यज्ञों के आनुष्ठानिक महत्व का उल्लेख है। यह कर्मकाण्डीय ग्रंथ हैं। चारों वेदों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
  • इनकी रचना एकांत (अरण्य-जंगल)में हुई और इनका अध्ययन भी एकांत में किया गया ।

वेदत्रयी

ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद। इन तीनों वेदों को मिलाकर वेदत्रयी कहा गया है।

उत्तरवैदिक काल की विशेषताएँ-

  • अर्थव्यवस्था
  • उद्योग

इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार तक आर्यों का विस्तार (सदानीरा नदी से गंडक नदी तक विस्तार) तथा दक्षिण में विदर्भ ( MP) तक आर्यों का विस्तार।

अर्थव्यवस्था - 

पशुपालन के साथ-साथ कृषि भी मुख्य पेशा बन गया । इस बात के कई साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जैसे-में कृषि से संबंधित समस्त क्रियाओं का वर्णन है – अथर्ववेद में बताया गया है कि सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल चलाया।

इस काल में अनाजों की संख्या में भी वृद्धि हुई । के भी साक्ष्य मिलते हैं। इंद्र को सुनासिर(हलवाहा) कहा गया है।कठ/ काठक संहिता में 24 बैलों के द्वारा हल चलाया जाता था। कृषि आधारित स्थाई जीवन की शुरुआत हुई। लेकिन कृषि अधिशेष अभी भी उत्पादित नहीं हो पा रहा था। (निर्वाह कृषि) क्योंकि अभी भी कृषि लकङी, पत्थर , ताँबे , काँसे के उपकरणों द्वारा ही होती थी। इस समय केवल कृषि का महत्व ही बढा था। कृषि कार्यों में दासों को नहींं लगाया गया था। (घरेलू व्यक्ति ही कृषि कार्यों से जुङे हुए थे।)तैतरीय उपनिषद में अन्न को ब्रह्म तथा यजुर्वेद में हल को सीर कहा गया है।

पशुपालन में हाथी पालन प्रारंभ हुआ और यह एक व्यवसाय बन गया। गर्दभ(गधा), सूकर(सूअर)पालन की भी शतपथ ब्राह्मण से जानकारी प्राप्त होती है। गर्दभ अश्विन देवताओं का वाहन था।

उत्तरवैदिक काल के लोग 4 प्रकार के बर्तनों से (मृदभांडों ) परिचित थे- इस काल के लोगों में लाल मृदभांड सबसे अधिक प्रचलित थे जबकि चित्रित धूसर मृदभांड इस युग की विशेषता थी। के लोगों ने जिस धातु का प्रयोग किया उनमें ताँबा पहला रहा होगा ।

इस काल में उपासना की पद्धति में यज्ञ एवं कर्मकांड प्रमुख हो गये । हालांकि इस काल में भी आर्य भौतिक सुखों की कामना हेतु देवताओं से यज्ञ एवं प्रार्थनाएं करते थे। यज्ञों में कर्मकांड बढा तथा मंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर बल दिया गया। यज्ञों में बङी मात्रा में पशुबली दी जाने लगी। जिससे वैश्य वर्ण असंतुष्ट हुआ।

उद्योग - 

कृषि के अलावा विभन्न प्रकार के शिल्पों का उदय भी हुआ। इन विभिन्न व्यवसायों के विवरण पुरुषमेध सूक्त में मिलते हैं। जिनमें धातु शोधक , रथकार , बढई , चर्मकार , स्वर्णकार , कुम्हार , व्यापारी आदि प्रमुख थे।

वस्त्र निर्माण , धातु के बर्तन , तथा शस्त्र निर्माण , बुनाई , नाई(वाप्ता) , रज्जुकार(रस्सी बनाने वाला)कर्मकार (लोहे के काम करने वाला), सूत (सारथी)। आदि प्रकार के छोटे-छोटे उद्योग प्रचलन में थे।

ब्राह्मण ग्रंथों में श्रेष्ठी का भी उल्लेख है। श्रेष्ठिन श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था।व्यापार प्रपण द्वारा सम्पन्न होता था जिसमें लेन – देन का माध्यम गाय तथा निष्क का बनाया जाता था।शतमान चाँदी की मुद्रा थी। शतपथ ब्राह्मण में दक्षिणा के रूप में इसका वर्णन है।

अथर्ववेद में चाँदी का उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का उल्लेख प्रथम बार हुआ तथा सूदखोर को कुसीदिन कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द मिलता है।

उत्तरवैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो गया था फिर भी लेन देन तथा व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा होता था।बाट की मूल भूत इकाई कृष्णल था। रत्तिका तथा गुंजा तौल की इकाई थी।

निष्क , शतमान , पाद , कृष्णल आदि माप की अलग-अलग इकाइयाँ थी। समुद्र व्यापार का भी साक्ष्य मिलता है। उत्तरवैदिक साहित्य में पुर की जानकारी मिलती है। पुर का अर्थ नगर नहीं है। पुर का अर्थ किला या फिर गाँव से है। तैत्तिरीय ब्राह्मण से नगर शब्द की जानकारी मिलती है। नगर – आद्य नगर । अर्थात उत्तरवैदिक काल ग्रामीण समाज था, नगरीय नहीं।

उत्तरवैदिक कालीन समाज चार वर्णों में वभक्त था-ब्राह्मण , राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य , शूद्र। इस काल में यज्ञ का अनुष्ठान अधिक बढ गया था जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित हो गया तथा वर्णों में कठोरता आने लग गई थी। त्रिऋण -देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण।

पंचमहायज्ञ- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषि यज्ञ, भूत यज्ञ, नृ यज्ञ।

गर्भाधान , पुंसवन, जातकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूङाकर्म, कर्णवेध, विद्यारंभ, उपनयन, केशांत/गोदान, समावर्तन, विवाह, अंतेष्टि।

इस काल वर्णों में विभक्त था -ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र।

उत्तर वैदिक काल चार वर्णों में विभक्त था । ये चारों वर्ण अपने-अपने वर्ण के अनुसार कार्य करते थे।

  • ब्राह्मण- समाज का सर्वोच्च स्थान प्राप्त वर्ण।इस वर्ण ने यज्ञ , कर्मकांड, मंत्रोचारण के आधार पर सर्वोच्चता प्राप्त की। - यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान लेना(अदायी), वेदों का अध्ययन करना , शिक्षा देना।
  • क्षत्रिय- समाज में दूसरा प्रमुख वर्ण । -युद्ध में नेतृत्व करना, सुरक्षा करना, शासन चलाना, यज्ञ कराना, वेदों का अध्ययन करना , दान देना।
  • वैश्य- तीसरा प्रमुख वर्ण।- i) वार्ता (कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य-व्यापार करना) ii)यज्ञ कराना, दान देना, वेदों का अध्ययन करना इनको कहा गया (एकमात्र कर देने वाला।)
  • शूद्र- सबसे निम्न स्थान पर स्थित वर्ण। - सेवा करना । इस वर्ण को अनस्यप्रेस्य (इनको कोई भी कार्य के लिये बुला सकता है तथा भेज सकता है।)लेकिन शूद्रों को अछूत नहीं माना गया है। (अस्पृश्य) नहीं थे।

वेदों के अध्ययन का अधिकार द्विजों को था। -दुबारा जन्म लेना। द्विज में।द्विज को जनेऊ धारण करने के लिए अलग -अलग ऋतु का पालन करना पङता था।

समाज पुरुष प्रधान था तथा महिलाओं की स्थिति में ऋग्वैदिक काल में गिरावट आई थी परंतु परवर्ती काल की तुलना (बाद के काल)में स्थिति अच्छी हो गई थी। के अनुसार- में पुत्रों के जन्म की कामना की गई है लेकिन पुत्रियों के जन्म को हतोत्साहित नहीं किया गया है।

में पुत्रों के जन्म की कामना की गई है। लेकिन पुत्रोयों के जन्म को दुख का कारण माना गया है।

में याज्ञवलक्य एक वाद-विवाद में गार्गी को डांट कर चुप करा देते हैं।

  • ब्रह्मचर्य आश्रम
  • गृहस्थ आश्रम
  • वानप्रस्थ आश्रम।

पर अवैदिक परंपराओं (श्रमण परंपरा-, बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है।) पहली बार जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है।

पुरुषार्थ

  • धर्म- नैतिक कर्तव्यों का समूह।(ब्रह्मचर्य आश्रम में)
  • अर्थ- भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना। (गृहस्थ आश्रम के लिए)
  • काम - संतानोत्पति करना(गृहस्थ आश्रम के लिए)
  • मोक्ष-जन्म-मरण चक्र से मुक्ति तथा जीवन के दुखों से मुक्ति। (संयास , वानप्रस्थ आश्रम के लिए)

मोक्ष के -

  1. पिता अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की (वेदों का ज्ञाता हो) तलाश करता था-(वर्तमान विवाह प्रणाली)
  2. यह ब्राह्मणों में प्रचलित था। कन्या का पिता यज्ञ का आयोजन कराता है तो जो युवक रीतिपूर्वक मत का संपादन करता उससे पुत्री का विवाह हो जाता था।
  3. आज के विवाह के समान था । कन्या का पिता वर को ढूँढ कर धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करता है।(कन्यादान)
  4. कन्या का पिता युवक से एक जोङी गाय-बैल की मांग करता है।
  5. -वर तथा कन्या दोनों प्रेमासक्त होकर विवाह कर लेते हैं।
  6. कन्या की बिक्री होती थी। -गरीब कन्या को खरीद कर विवाह करना।
  7. बलपूर्वक कन्या का हरण कर विवाह किया जाता था। क्षत्रियों में इसे स्वीकार किया गया है।( - का विवाह)
  8. सबसे निकृष्ट विवाह- सोती हुई , मंद बुद्धि कन्या के साथ बलात्कार करना।
  1. देवऋण- मनुष्य के भाग्य निर्धारण में देवताओं की भूमिका होती है इसलिए यज्ञ करने में देवऋण से मुक्ति मिलती है।
  2. पितृऋण- माता- पिता ने जन्म दिया है तो विवाह करके संतानोत्पति (पुत्र की प्राप्ति) करना।
  3. ऋषिऋण- विद्या अध्ययन में गुरुजनों की (ऋषियों ) की भूमिका है। वेदों का अध्ययन , दान देना ।
  4. देवयज्ञ/ब्रह्म यज्ञ- यज्ञ अनुष्ठान करवाना।
  5. पितृ यज्ञ- पूर्वजों के प्रति श्राद्ध, तर्पण करना।
  6. ऋषि यज्ञ- वेदों का अध्ययन, दान देना।
  7. भूत यज्ञ- समस्त जीवों को बलि प्रदान करना यह बलि अग्न में न डालकर चारों दिशाओं में खुले में रखी जाती है। जैसे- पक्षियों के लिये अनाज, चीटियों के लिये अनाज।
  8. नृ यज्ञ/अतिथि / मानव यज्ञ- अतिथि सत्कार । धर्मसूत्र में कहा गया है कि- अतिथि न केवल आपके घर में भोजन करता है, बल्कि आपके पापों का भी भक्षण करता है।
  9. गर्भाधान- यह संस्कार जन्म से पूर्व किया जाता था।
  10. पुंसवन- यह संस्कार भी जन्म से पहले ही किया जाता था।
  11. सीमंतोन्नयन- यह भी जन्म से पहले किया जाता था तथा गर्भ की रक्षा के लिये विष्णु की प्रार्थना की जाती थी।
  12. जातकर्म- गर्भ नाल काटी जाती है तथा पिता शहद व गुङ चटाता है।
  13. नामकर्ण-नाम रखा जाता है।
  14. निष्कर्मण- 4 सप्ताह के बाद घर से बाहर तथा सूर्य के दर्शन।
  15. अन्नप्राशन- प्रथम बार अन्न खिलाना।
  16. चूङाकर्म- मुंडन किया जाता था।
  17. कर्णवेध- कानों में छिद्र , ब्राह्मणों के लिये आवश्यक होता था।
  18. वद्यारंभ-घर में ही माता-पिता के संरक्षण में विद्या की शुरुआत ।
  19. उपनयन- जनेऊ धारण करना। ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य (स्रीयों को नहीं) ब्रह्मचर्य आश्रम की शुरुआत इस संस्कार के बाद हुई थी।
  20. वेदाध्ययन- गुरु के समीप वेदों का अध्ययन । बालक की शिक्षा शुरु होती थी।
  21. केशांत / गोदान-16-17 वर्ष में आयोजित जब पहली बार दाढी-मूछ आती थी तो गुरु के आश्रम में ही इनको साफ किया जाता था। ( के प्रति जागरुकता)
  22. समावर्तन- शिक्षा पूरी होने के बाद आयोजित गुरु को दान दिया जाता था। इस संस्कार के बाद आश्रम की समाप्ति । औपचारिक शिक्षा समाप्त । उपाधिकरण (ज्ञान रुपि सागर में स्नान)
  23. विवाह- 8 प्रकार के विवाह आश्रम की शुरुआत इस संस्कार से प्रारंभ।
  24. अंतेष्टि- मरने के बाद अंतिम संस्कार ।

उत्तर वैदिकः धार्मिक स्थिति

  • इस काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणें के प्रभाव के कारण आर्य संस्कृति का केन्द्र बन गया था।
  • ऋग्वैदिक काल के दो प्रमुख देवता इंद्र और अग्नि का अब पहले जैसा महत्व नहीं उनके स्थान पर उत्तर वैदिक काल में जो देवकुल में सृष्टि के निर्माता थे को सर्वोच्च स्थान मिला।
  • विष्णु को के रूप में पूजा जाता था।
  • ऋग्वैदिक काल में पूषण देवता को पशुओं का देवता माना जाता था , लेकिन उत्तर वैदिक काल में देवता को का देवता माना जाने लगा।
  • इस काल में देवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की भी पूजा प्रचलित हुई अर्थात् कुछ प्रतीक चिन्हों की पूजा होने लगी थी।
  • इस काल में बहुदेववाद, वासुदेव सम्प्रदाय तथा षडदर्शनों (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमासां) का आरंभ हुआ।
  • उत्तरवैदिक काल में उपासना की पद्दति में यज्ञ एवं कर्मकांड प्रमुख हो गये । हालांकि इस काल में भी आर्य भौतिक सुखों की कामना हेतु देवताओं से यज्ञ तथा प्रार्थनाएँ करते थे।
  • यज्ञों में बङी मात्रा में कर्मकाण्ड बढा एवं मंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर बल दाया गया।
  • यज्ञों में बङी मात्रा में पशुबली दी जाने लगी, जिसमें वैश्य वर्ण असंतुष्ट हुआ।
  • इस काल में यज्ञ का महत्व इतना बढ गया कि देवताओं को भी यज्ञ के अधीन माना गया । तथा देवता और पृथ्वी की उत्पत्ति भी यज्ञ से बताई गई। यज्ञ की महत्ता बढ गई थी।
  • पुरुष प्रधान समाज के तत्व प्रबल होने के साथ-2 देवियों का महत्व कम हुआ, क्योंकि समाज में पुरुष प्रभाव के तत्व प्रबल हो रहे थे। यहाँ तक कि इस काल में इंद्र , अग्नि, वरुण जैसे देवताओं का महत्व भी कम हो गया। तथा प्रजापति, विष्णु , यक्ष, गंधर्व, दिगपाल जैसे अर्द्ध देवता प्रमुख देवताओं के सहायक के रुप में स्थापित हुये।
  • वैदिक काल (ऋग्वैदिक +उत्तरवैदिक ) में धर्म के स्वरुप में परिवर्तन निम्न रूप से हुआ-

ने कहा है कि- (अवसर विशेष पर एक देवता सर्वोच्च हो जाता है तथा अन्य गौण हो जाते हैं इसे हीनोथिज्म कहा गया है।

(बढते मानसिक विकास का सूचक)

सर्वोच्चता के प्रति लोगों की आस्था नहीं रही।

आरण्यक/उपनिषद में कहा गया है कि देवता एक ही हैं अर्थात् (ब्रह्म)-सर्वोच्च देवता परम आत्मा।

उपनिषदों में कहा गया है कि एक ही तत्व है जिससे ब्राह्म , देवता , मनुष्य , सृष्टि, पेङ-पौधे, अजीव की उत्तपति हुई। कण-2 में भगवान है।

होता- मुख्यतः प्रार्थना करने वाले इन पुरोहितों ने ऋक संहिता का पुनर्सृजन किया।

उदगाता- सामवेद का गायन करने वाले पुरोहित ।

अघ्वर्यु - यजुर्वेद का मंत्रोचार करने वाला पुरोहित ।

ब्रह्मा-इन सभी यज्ञों को विधि पूर्वक सम्पन्न करवाने वाला पुरोहित ।

 उत्तर वैदिक कालीन राजनीतिक स्थिति 

  • राजनीतिक विस्तार में जितना योगदान उत्साही राजाओं का (लौहे के औजारों से) था , उतना ही योगदान ब्राह्मणों ( अग्नि के द्वारा जंगलों को साफ किया गया)का था ।
  • इस काल में जन जनपद बन गए। अर्थात क्षेत्रीय राज्य की स्थापना हुई। भरत जन + पुरु जन = कुरुजन पद बना। (गंगा-यमुना के ऊपरी दोआब में स्थिति)
आर्यों के अधीन क्षेत्र-
  • कुरु जनपद
कुरु जनपद की प्रारंभिक राजधानी सासंदीवाद थी।

कुरु जनपद में 950 ई.पू. में कौरव- पांडव के मध्य महाभारत का युद्ध हुआ था।बाहलिक प्रतिपीय, परीक्षित(अथर्ववेद में नाम), जन्मजेय, निचक्षु। निचक्षु के समय हस्तिनापुर बाढ से नष्ट हो गया था, अतः कोशांबी को नई राजधानी बनाया गया था।

प्रवाहन (विद्वानों के संरक्षक शासक ),जैबाली, आरुणिश्वेतकेतु(उच्च कोटी के दार्शनिक ) । आरुणिश्वेतकेतु ने पांचाल में परिषद का आयोजन किया था जिसमें याज्ञवलक्य विजेता बने थे। शतपथ ब्राह्मण में कुरु,पांचाल जनपदों को वैदिक सभ्यता का प्रतिनिधि कहा गया है। आरुणिश्वेतकेतु ने अपने गुरु राहुल गण की सहायता से अग्नि के द्वारा नए क्षेत्र प्राप्त किये थे।यह एक दार्शनिक राजा था।

  1. कोसल जनपद - सरयू नदी के तट पर स्थित (यू . पी.) । रामकथा से जुङा हुआ स्थल ।
  2. काशी जनपद - वरणवती नदी(गंगा की धारा)के तट पर स्थित। वाराणसी इसकी राजधानी थी। अजातशत्रु (दार्शनिक राजा)।
  3. मत्स्य जनपद - अलवर, भरतपुर, जयपुर तक का क्षेत्र मत्स्य जनपद कहलाता था। इसकी राजधानी विराटनगर थी।
  4. विदेह - विदेह की राजधानी मिथिला थी। यह जनपद सदानीरा (गंडक) नदी के तट पर स्थित था । शासक- जनक, विदेह माधव (दार्शनिक शासक - जिन्हें वेदों का ज्ञान हो वह राजा।)
  5. गांधार - यह जनपद सिंधु नदी के तट पर स्थित । यहाँ की राजधानी तक्षशिला थी।
  6. मद्र जनपद - यह जनपद भी सिंधु नदी के तट पर स्थित था। यहाँ की राजधानी पंजाब-स्यालकोट के निकट स्थित थी।
  7. कैकेय जनपद - यह जनपद (गांधार -व्यास के बीच स्थित था।) शासक- अश्वपति कैकेय(दार्शनिक राजा)

उत्तरवैदिक काल में राजा की शक्ति में वृद्धि हुई, क्योंकि अब लोहे का उपयोग युद्ध के रूप में होने लगा था। राजा की शक्ति में वृद्धि पता साहित्यों से भी चलता है। इस काल में राजा के साथ अनेक धार्मिक अनुष्ठान जुङ गए । . के तौर पर - ।

  • राजा अनेक उपाधियाँ लेने लगा जैसे - सम्राट, स्वराट, प्रकराट आदि।
  • ऐतरेय ब्राह्मण में अलग-2 क्षेत्र के राजाओं द्वारा अलग-2 उपाधि

लिए जाने का उल्लेख मिलत है। ऐतरेय ब्राह्मण में राजत्व सिद्धांत का उल्लेख मिलता है और प्रतिष्ठा में वृद्धि को स्पष्ट करता है।

1.अश्वमेघ यज्ञ-
  • यह यज्ञ राज्य विस्तार हेतु किया जाता था।
  • इसमें 4 रानियाँ,4 रत्निन/वीर(अधिकारी), 400 सेवक । इन सबके अलावा 1हाथी, 1 श्वेत बैल, 1 श्वेत घोङा, 1श्वेत छत्र आवश्यक होता था।
  • 3दिन तक यह यज्ञ चलता था।
  • साल भर बाद अभिषिक्त घोङे की यज्ञ में 600 बैलों (सांड) के साथ बलि दी जाती थी।
2.राजसूय यज्ञ
  • राजा की प्रतिष्ठा एवं सम्मान बढाने हेतु आयोजित होता था।
  • 1 वर्ष से अधिक समय तक चलता था।
  • 17 नदियों का जल आवश्यक था। (जिसमें सरस्वती नदी का जल प्रधान माना जाता था। )
  • 12 अधिकारी , 1 रानी की उपस्थिती आवश्यक थी।
  • इस यज्ञ के दौरान अक्षक्रिडा (पासे का खेल), गोहरन(गाय को हांक कर लाना) आदि खेलों में राजा को विजेता बनाया जाता था।
3.वाजपेय यज्ञ
  • वाजपेय यज्ञ का उद्येश्य राजा की शारीरिक और आत्मिक शक्ति में वृद्धि करना और उसे नवयौवन प्रदान करना था।
  • रथ धावन (रथों की दौङ) का आयोजन होता था। जिसमें राजा को विजेता बनाया जाता था।
  • इस यज्ञ को वैदिक काल का ओलंपिक भी कहा जाता है।
  • अधिकारियों की संख्या में बढोतरी (20) हो गई थी । इनमें से 12 स्थायी अधिकारी थे जो इस प्रकार थे-

    12) स्थाई अधिकारी

  1. युवराज
  2. महिषी(पटरानी)
  3. ग्रामणी
  4. सूत(राजा का साथी)
  5. क्षतृ/प्रतिहारी(द्वारपालों का प्रमुख)
  6. संग्रहित्री(राजकोष का प्रमुख)
  7. पालागल(विदूषक राजा का मित्र, संदेशवाहक)
  8. अक्षवाय(पासे के खेल में राजा का सहयोगी)
  9. गोनिकर्तन(शिकार में राजा का सहयोगी)
  10. भागयुद्ध(कर संग्रहकर्ता)
  11. सेनानी
  12. पुरोहित

इस काल में चारों वर्णों का प्रतिनिधित्व मिलता है।

अधिकारियों को रत्नानी ( वीर)कहा जाता था ।

अस्थाई अधिकारी-

उत्तरवैदिक काल की अन्य विशेषताएँ

  • सभा और समिति का पहले की तुलना में महत्त्व बढा। यह राजा पर नियंत्रण का कार्य करती थी। अथर्ववेद में सभा का 7 बार तथा समिति का 13 बार प्रयोग किया गया है।
  • इस काल में कर प्रणाली नियमित हुई।(स्थायी कर व्यवस्था)
  • बलि(दैनिक उपयोग की वस्तुएँ) नामक कर प्रणाली भी स्थाई हो गयी थी।
  • भाग, भोग, शुल्क नामक कर भी उत्पन्न हुये।
  • भाग- भूराजस्व कर
  • भोग- हमेशा दैनिक उपभोग की वस्तुएँ
  • शुल्क - व्यापारिक कर (चुंगी) ये सभी कर अनिवार्य थे।
  • राजकोष कुछ समृद्ध हुआ। फिर भी राजा की स्थायी सेना और रक्त संबंध से पृथक नौकरशाही का विकास इस काल में भी नहीं हो पाया था। कारण- इस काल में भी अर्थव्यवस्था निर्वाह रूप में बनी हुई थी। अधिशेष- उत्पादन सिमित था। क्योंकि कृषि के प्रमुख पेशा बनने पर भी अब भी कृषि कर्म मुख्यतः काँसे एवं ताँबे के उपकरणों से होता था। लोहे के कृषि उपकरण बहुत कम मिले हैं। अतः कृषि उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पायी थी।

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