Academy Last Update - 2024-03-03
नियमों और कानूनों का एक ऐसा संग्रह जिससे मानव का सर्वांगीण विकास होता है उसे संविधान कहते है।
संविधान (Sanvidhan) किसी देश की नीतियों एवं सिद्धांतों का संग्रह होता है जिसके आधार पर उस देश की शासन व्यवस्था को संचालित किया जाता है।
संविधान एक देश या संगठन की सबसे महत्वपूर्ण और मूल विधि होती है। यह विधानमाला के रूप में लिखित दस्तावेज़ होता है जिसमें राष्ट्र के संविधानिक और प्रशासनिक संरचना, सरकार की शक्तियाँ, नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य, न्यायपालिका का संरचना, और अन्य सामान्य निर्देशों का वर्णन होता है। संविधान एक देश के नागरिकों के मूलाधारी अधिकारों और मानवाधिकारों की सुरक्षा और संरक्षण का माध्यम होता है। यह देश के सभी नागरिकों को समानता, न्याय, और अधिकार की प्राप्ति की गारंटी प्रदान करता है। संविधान न्यायिक, सामान्य, और शासनिक संरचना के लिए एक मानदंड स्थापित करता है और समानता, ज्ञान, और स्वतंत्रता के मूल तत्वों को स्थापित करता है।
संविधान एक ऐसा लिखित दस्तावेज होता है जिनके द्वारा किसी देश में शासन व्यवस्था चलाई जाती है इसमें नियम कायदे कानून सरकार की शक्तियाँ अधिकार आदि के बारे में विस्तार से लिखा होता है उसे संविधान (Constitution) कहते है।
संविधान शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है सम और विधान । सम का अर्थ है – बराबर तथा विधान का अर्थ है- नियम-कानून अर्थात् वह नियम कानून जो सभी नागरिकों पर एक समान लागू हो, संविधान (Sanvidhan) कहलाता है।
संविधान को अंग्रेजी में Constitution कहते हैं जो लैटिन भाषा के Constiture से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – शासन करने वाला सिद्धान्त ।
संविधान का अर्थ होता है एक सार्वभौमिक और स्थायी नियमसंहिता जो किसी देश, संगठन या समुदाय के निर्माण, संचालन और न्यायपालिका की आधारशिला के रूप में कार्य करता है। संविधान राष्ट्रीय एकता, न्याय, स्वतंत्रता, सामरिकता और सामाजिक न्याय के मूल्यों को स्थापित करता है। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्र के संविधानिक और राजनैतिक संरचना को निर्धारित करना, नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य सुनिश्चित करना, सरकारी संस्थाओं की सीमाएँ और प्राधिकारों को सम्प्रभु करना, और न्यायपालिका की स्थापना और कार्य को सुनिश्चित करना होता है। संविधान निर्माण और संशोधन की प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है और नागरिकों को मानवाधिकारों, न्याय, स्वतंत्रता और सामान्य सुरक्षा की गारंटी प्रदान करता है।
उत्पत्ति के आधार पर –
इस प्रकार के संविधान का निर्माण किसी निश्चित समय में कुछ निश्चित व्यक्तियों द्वारा नहीं होता। आवश्यकता व परिस्थिति के अनुसार विकसित होते है।
इस प्रकार के संविधान को निश्चित समय में कुछ व्यक्तियों द्वारा बनाया जाता है। इसका निर्माण वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श द्वारा होता है।
परिवर्तनशीलता के आधार पर –
ऐसा संविधान जिसमें संशोधन करने में कठिनाई हो कठोर संविधान कहलाता है। अमेरिका का संविधान विश्व का सबसे कठोर संविधान माना जाता है। जैसे – अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड।
ऐसा संविधान जिसमें संशोधन करने में आसानी हो लचीला संविधान कहलाता है।
ब्रिटेन का संविधान विश्व का सबसे लचीला संविधान माना जाता है क्योंकि इसमें संशोधन बङी आसानी से किया जा सकता है।
नियमों के आधार पर –
नियमों और कानूनों का ऐसा संग्रह जो लिखित अवस्था में होता है उसे लिखित संविधान कहते है।
मोनको का संविधान विश्व का सबसे छोटा लिखित संविधान है।
विश्व का सबसे बङा लिखित संविधान भारत का संविधान है।
नियमों और कानूनों का ऐसा संग्रह जो लिखित अवस्था में नहीं होता है, बल्कि मौखिक होता है उसे अलिखित या मौखिक संविधान कहते है। अलिखित संविधान रीति-रिवाजों, परम्पराओं और न्यायी निर्णयों पर आधारित होता है।
भारतीय संविधान का निर्माण विश्व के कई संविधानों के आधार पर किया गया मगर इसमें कई ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग करते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सन 1949 में अपनाए गए संविधान के अनेक वास्तविक लक्षणों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। विशेष रूप से 7 वें, 42 वें, 73 वें, 74 वें संशोधन में। संविधान में कई बङे परिवर्तन करने वाले 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 को मिनी काॅन्सटिट्यूशन कहा जाता है। हालांकि केशवानंद भारती मामले (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मिली संवैधानिक शक्ति संविधान के मूल ढांचे को बदलने की अनुमति नहीं देती।
डाॅ. अम्बेडकर ने कहा है –
मैं महसूस करता हूँ कि भारतीय संविधान व्यावहारिक है, इसमें परिवर्तन क्षमता है और इसमें शान्तिकाल तथा युद्धकाल में देश की एकता को बनाये रखने की भी सामथ्र्य है। वास्तव में, मैं यह कहना चाहूंगा कि यदि नवीन संविधान के अन्तर्गत स्थिति खराब होती है तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब है, वरन् हमें यह कहना होगा कि मनुष्य ही खराब है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार संविधान का उद्देश्य भारत में प्रभुतासम्पन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना करना है।
भारतीय संविधान की एक प्रस्तावना है जिसमें संविधान के मौलिक उद्देश्यों व लक्ष्यों को दर्शाया गया है। इसे संविधान की आत्मा या संविधान की राजनैतिक कुण्डली भी कहा जाता है। इसके प्रारंभ के हम भारत के लोग से अभिप्राय है कि अन्तिम प्रभुसत्ता जनता में निहित है। जहाँ संविधान की भाषा संदिग्ध या अस्पष्ट है, वहाँ प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के आशय को समझने में सहायक है। अतः यह संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।
ऑस्ट्रेलिया के संविधान से प्रस्तावना की भाषा को तथा प्रस्तावना को संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से ग्रहण किया गया है। प्रस्तावना का प्रस्ताव सर्वप्रथम भारत शासन अधिनियम-1919 में लाया गया और इसको स्वीकृत भारत शासन अधिनियम, 1935 में किया गया था। मूल संविधान की प्रस्तावना 85 शब्दों से निर्मित थी।
42 वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा प्रस्तावना में संशोधन कर समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखण्डता शब्द जोङे गये है। प्रस्तावना को न्यायपालिका ने संविधान की कुंजी कहा है। प्रस्तावना का पहला वाक्यांश हम भारत के लोग संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रस्तावना पर आधारित है जिसे संयुक्त राज्य संघ ने संयुक्त राज्य अमेरिका से लिया है तो भारत के संविधान की प्रस्तावना की भाषा ऑस्ट्रेलिया के संविधान से ली गई है। प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है। संविधान के निर्वचन में प्रस्तावना का बहुत बङा महत्त्व है। प्रस्तावना न्याय योग्य नहीं है, अर्थात् इसके आधार पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता।
के. एम. मुंशी ने प्रस्तावना को राजनीतिक जन्मपत्री की संज्ञा प्रदान की है।
सुभाष कश्यप ने प्रस्तावना के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि, संविधान शरीर है तो प्रस्तावना उसकी आत्मा(Sanvidhan ki Aatma) है। प्रस्तावना आधार शिला है तो संविधान उस पर खङी अट्टालिका।
इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना उसका अभिन्न अंग है यह महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है। इसमें शासन के उद्देश्यों का उल्लेख है। इसका उपयोग संविधान के अस्पष्ट उपबन्धों के निर्वचन में किया जा सकता है। किन्तु यह संविधान के स्पष्ट प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकती है और न ही न्यायालय द्वारा प्रवर्तित करायी जा सकेगी। इसका संशोधन किया जा सकता है। किन्तु उस भाग का नहीं जो संविधान का आधारभूत ढांचा है।
भारत का संविधान विश्व का सबसे बङा लिखित संविधान है। यह बहुत समग्र और विस्तृत दस्तावेज है। मूल रूप से संविधान में एक प्रस्तावना, 22 भागों में बंटे 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थी। भारतीय संविधान में वर्तमान समय में 470 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 25 भाग है। विश्व के किसी संविधान में इतने अनुच्छेद और अनुसूचियाँ नहीं हैं। 9 वीं अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन (1951), 10 वीं अनुसूची 52 वें संविधान (1985), 11 वीं अनुसूची 73 वें संशोधन (1992) तथा 12 वीं अनुसूची 74 वें संशोधन (1993) द्वारा संविधान में जोङी गयी हैं। इसकी विशालता का सबसे प्रमुख कारण केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दोनों सरकारों के गठन तथा उनकी शक्तियों का विस्तृत वर्णन है।
अमेरिका के संविधान में केवल 7 (विश्व का सबसे छोटा लिखित संविधान), कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128 तथा अफ्रीका के संविधान में 253 अनुच्छेद हैं।
सर आइवर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान को विश्व का सबसे बङा एवं विस्तृत संविधान कहा है।
भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न कारण हैं –
(अ) भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता।
(ब) ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम, 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत बङा था।
(स) संविधान सभा में कानून विशेषज्ञों की भरमार।
भारत के संविधान में विश्व के कई देशों के संविधान के साथ भारत-शासन अधिनियम, 1935 के प्रावधानों को शामिल किया गया है। संविधान का अधिकांश ढांचागत हिस्सा गवर्नमेंट ऑफ भारत शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया।
डाॅ. अम्बेडकर ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि भारत के संविधान का निर्माण विश्व के तमाम संविधानों को छानने के बाद किया गया है।
संविधान के स्रोत | प्रावधान |
भारत शासन अधिनियम, 1935 |
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जर्मनी का संविधान |
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पूर्व सोवियत संघ का संविधान |
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अमेरिका का संविधान |
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ब्रिटेन का संविधान |
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कनाडा का संविधान |
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ऑस्ट्रेलिया का संविधान |
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आयरलैण्ड का संविधान |
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जापान का वाइमर संविधान |
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दक्षिण अफ्रीका का संविधान |
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फ्रांस का संविधान |
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संविधान में संशोधन प्रणाली के आधार पर संविधान दो प्रकार का होता है – कठोर संविधान एवं लचीला संविधान।
कठोर संविधान उसे माना जाता है जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया सामान्य कानून निर्माण की प्रक्रिया से भिन्न होती है। जिसमें संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता हो। इसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती है। उदाहरण के लिए अमेरिकी संविधान।
लचीला संविधान वह कहलाता है जिसमें संविधान का संशोधन अथवा संवैधानिक कानून का संशोधन कानून निर्माण की सामान्य प्रक्रिया से ही किया जा सकता है। इसमें संविधान संशोधन सरलता से होता है। जैसे – ब्रिटेन का संविधान।
भारत का संविधान न तो लचीला है और न ही कठोर बल्कि यह दोनों का मिला-जुला रूप है। संविधान के भाग-20 के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन प्रक्रिया का प्रावधान है। भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से ली गयी है। संविधान में केवल कुछ ही उपबंध ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है जबकि अधिकतर उपबंधों में संसद द्वारा साधारण विधि द्वारा ही परिवर्तन किया जा सकता है।
भारत में तीन प्रकार से संविधान संशोधन किया जाता है –
इस प्रकार कुछ उपबन्ध तो आसानी से किन्तु कुछ उपबन्ध कठिनाई से संशोधित किये जाते हैं, जिसके कारण इसे नम्यता व अनम्यता का अनोखा मिश्रण कहा जाता है। सर आइवर जेंनिग्स ने भारतीय संविधान को आवश्यकता से अधिक कठोर संविधान कहा है जबकि के. सी. ह्वीयर के अनुसार भारतीय संविधान अधिक कठोर तथा अधिक लचीले के मध्य एक अच्छा संतुलन स्थापित करता है।
संघात्मक संविधान के अन्तर्गत दो प्रकार की शासन प्रणाली स्थापित की जा सकती है – (1) अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली (2) संसदीय शासन प्रणाली।
भारतीय संविधान में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की गयी है। संसदीय शासन प्रणाली सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में विकसित हुई थीं। इंग्लैण्ड के समान ही भारतीय संविधान में भी संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गयी है। यह प्रणाली केन्द्र तथा राज्य दोेनों में समान है। भारत का राष्ट्रपति इंग्लैण्ड के सम्राट के समान कार्यपालिका का नाममात्र का प्रधान होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से गठित मंत्रिपरिषद् में निहित होती है। राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद् की सलाह से करता है। इसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है।
अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। यह प्रावधान भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली की सरकार की आधारशिला है। आयरलैंड के संविधान के समान ही भारत के संविधान में उत्तरदायी शासन की संसदीय प्रणाली पर एक निर्वाचित राष्ट्रपति स्थापित किया गया है।
भारतीय संविधान का भाग तीन(3) अपने नागरिकों के लिए कुछ 6 मूल अधिकारों की घोषणा करता है। यह अमेरिकी संविधान से लिया गया है। यह राज्य की विधायी और कार्यपालिका शक्ति पर निर्बन्धन के रूप में है। राज्य द्वारा मूलाधिकारों के प्रतिकूल बनायी गयी विधि न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित की जा सकती है। इस प्रकार न्यायालय मूलाधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है। व्यक्ति के मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम लागू किया जा सकता है।
जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है। इन उपबन्धों से गलत आशंका के फलस्वरूप कुछ आलोचकों ने भारत के संविधान को वकीलों के लिए वरदान कहा है।
सर जैनिंग्स के अनुसार इसका कारण यह है कि संविधान सभा में अधिवक्ता-राजनीतिज्ञों की प्रमुखता थी। उन्होंने व्यक्तियों के अधिकार और परमाधिकार रिटों को संहिताबद्ध करने का विचार किया यद्यपि इंग्लैण्ड में कोई भी ऐसा नहीं करेगा।
सर आइवर के शब्दों में भारत ने वकीलों पर बहुत अधिक विश्वास किया है। किन्तु मूल अधिकर अत्यान्तिक नहीं हैं, राज्य द्वारा लोकहित में उन पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है।
संसद इन्हें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाप्त कर सकती है अथवा इनमें कटौती भी कर सकती है। अनुच्छेद 20-21 को छोङकर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है। पहले संविधान द्वारा नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किये गये थे, लेकिन 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को भाग-3 से हटाकर अनुच्छेद 300क के अन्तर्गत विधिक अधिकार के रूप में अन्तर्विष्ट किया गया है।
मौलिक कर्त्तव्य का समावेश मूल संविधान में नहीं था। सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यमम से आंतरिक आपातकाल (1975-1977) के दौरान शामिल किया गया।
मौलिक कर्त्तव्य का उल्लेख संविधान के भाग-4क और अनुच्छेद 51(क) में किया गया है। 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य जोङे गए थे। इसे रूस के संविधान से लिया गया था।
86 वें संविधान संशोधन 2002 द्वारा 11 वाँ मूल कर्त्तव्य- 51क जोङा गया है जिसमें 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा का अवसर प्रदान करने का कर्त्तव्य बच्चों के माता-पिता या संरक्षक पर आरोपित किया गया है। ये कर्त्तव्य न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है।
संविधान का भाग-4, अनु. 36 से 51 राज्यों के नीति निर्धारण में मार्गदर्शक कुछ पवित्र कर्त्तव्यों का उल्लेख करता है। इसे आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। इन कर्त्तव्यों का पालन कर राज्य एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार रूप प्रदान कर सकते हैं। ऑस्टिन ने इन सिद्धान्तों को राज्य की आत्मा कहा है। इसे न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता है। नीति निर्देशक तत्त्वों को लागू करना राज्यों का नैतिक कर्त्तव्य है।
नीति निर्देशक तत्त्व देश के शासन में मूलभूत स्थान रखते हैं तथा कानून बनाते समय इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। इन्हें संविधान में एक मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में रखा गया तथा इनका क्रियान्वयन कब और कैसे किया जायेगा, यह राज्य पर छोङ दिया गया।
इसीलिए इसके सम्बन्ध में के. टी. शाह ने कहा था कि– राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसा चेक हैं जो बैंक की सुविधानुसार अदा किया जाता है।
एकीकृत व स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी सारे देश के लिए न्याय प्रशासन की एक ही व्यवस्था करता है जिसके शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय है। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय है जैसे जिला अदालतें व अन्य निचली अदालतें। संघात्मक संविधान में संघ और राज्यों के मध्य विवाद के समाधान और संविधान के निर्वचन का दायित्व न्यायपालिका पर होता है। इसलिए न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा गया है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया संविधान के उपबन्धों का निर्वचन अंतिम होता है। न्यायपालिका पर संविधान और मूल अधिकारों के संरक्षण का भी दायित्व होता है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है। भारतीय संविधान द्वारा एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना उसकी एक महती विशिष्टता है। अगर स्वतंत्र न्यायपालिका होगी तो वह निष्पक्ष और निर्भयतापूर्ण न्याय दे सकेगी। इसलिए न्यायपालिका को केन्द्र तथा राज्यों दोनों में से किसी के भी अधीन नहीं रखा गया है। इसके लिए संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति, वेतन, भत्ता तथा पद से हटाये जाने के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रावधान किये गये हैं जिससे उन पर सरकार द्वारा किसी प्रकार का दबाव न डाला जा सके।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 के अनुसार, भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का एक संघ होगा। परन्तु प्रो के.सी. ह्वेयर के अनुसार भारतीय संविधान एक अर्द्धसंघीय संविधान है। जबकि सर आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि – यह एक ऐसा संघ है जिसमें केन्द्रीयकरण की सशक्त प्रवृत्ति है।
भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान के सभी प्रमुख लक्षण यथा – शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, अपरिवर्तनशीलता तथा स्वतंत्र न्यायपालिका विद्यमान हैं। किन्तु उसमें एकात्मक संविधान की प्रवृत्ति यथा- इकहरी नागरिकता, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा किया जाना, आपात कालीन उपबन्ध, नये राज्यों के निर्माण की संसद की शक्ति, अखिल भारतीय सेवायें, राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व और राज्य सूची पर केन्द्र की विधि बनाने की शक्ति, आदि भी पायी जाती है। ये सारे प्रावधान या लक्षण केन्द्र के सम्मुख होते है अर्थात् केन्द्र के द्वारा ये सारे कार्य किये जाते है।
जिसके आधार पर जेनिंग्स जैसे कुछ विद्वानों ने भारतीय संविधान को केन्द्राभिमुख संविधान कहा है। अतः भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मकता की प्रवृत्ति को भी धारण करता है।
डाॅ. अम्बेडकर ने कहा भी है कि, संविधान को संघात्मकता के तंग ढांचे में नहीं ढाला गया है।
जी. ऑस्टिन ने भारतीय संघवाद को सहकारी संघवाद कहा है।
संघात्मक संविधान द्वारा सामान्यतः दोहरी नागरिकता (प्रथम संघ की तथा द्वितीय राज्य की) का प्रावधान किया जाता है, जैसे – अमेरिका में। किन्तु भारतीय संविधान द्वारा भारत की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उसकी संघीय संरचना के बावजूद एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है, कोई व्यक्ति सिर्फ भारत का नागरिक होता है, किसी राज्य का नहीं। फलतः प्रत्येक नागरिक को नागरिकता से उत्पन्न सभी अधिकार, विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ समान रूप से प्राप्त हैं।
भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनायी गयी हैं। संसदीय प्रणाली में सरकार का गठन जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से किया जाता है। भारत में प्रतिनिधियों के निर्वाचन हेतु वयस्क मताधिकार प्रणाली को अपनाया गया है। वयस्क मताधिकार को अपनाया जाना नये संविधान की महान् और क्रान्तिकारी विशेषता है।
मूल संविधान में मताधिकार की न्यूनतम आयु 21 वर्ष नियत थी। 61 वें संविधान संशोधन 1989 द्वारा अनुच्छेद-326 में संशोधन कर मताधिकार की न्यूनतम आयु 18 वर्ष कर दी गयी। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक, जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर लिया है, को बिना किसी भेदभाव के मतदान का समान अधिकार प्राप्त है, किन्तु अनिवास, चित्तविकृति, अपराध या भ्रष्ट अथवा अवैध आचरण के आधार पर कोई व्यक्ति अपने मताधिकार से वंचित किया जा सकता है।
हमारा संविधान सर्वोपरि है। क्योंकि सरकार के सभी अंग (कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका) इसी से अपनी शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। ब्रिटेन में संसद की सर्वोच्चता स्थापित की गयी है। संसद द्वारा निर्मित विधि को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। अमेरिकी संविधान में न्यायपालिका सर्वोच्च है। वह संसद द्वारा बनायी गयी विधि को संविधान के अनुरूप न होने पर असंवैधानिक घोषित कर सकती है। किन्तु भारत में संविधान को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। भारत में शक्ति के स्रोत के रूप में संविधान सर्वोच्च है।
संकटकाल के सम्बन्ध में विशेष प्रावधान हमारे संविधान की एक अन्य विशेषता है जिसके अनुसार संकटकाल में हमारी राज-व्यवस्था में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो जाते हैं।
संविधान में तीन प्रकार के संकटकाल का उल्लेख किया गया है –
आपातकाल के दौरान देश की पूरी सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है और राज्य सरकार केंद्र के नियंत्रण में काम करती है। संकटकालीन घोषणा का सबसे प्रमुख प्रभाव यह होता है कि हमारा संघात्मक शासन एकात्मक हो जाता है। ये संकटकालीन प्रावधान संविधान को लचीलापन प्रदान करते हैं जो कि भारत देश की परिस्थितियों में नितान्त आवश्यक है।
भारत में संसदात्मक व्यवस्था को अपनाकर संसद की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है। लेकिन इसके साथ ही संघात्मक व्यवस्था के आदर्श के अनुरूप न्यायालय को संविधान की व्याख्या करने तथा उन विधियों एवं आदेशों को अवैध घोषित करने का अधिकार दिया है, जो संविधान के विरुद्ध हो।
न्यायिक पुनरावलोकन (अनुच्छेद 13) – न्यायालय के इस अधिकार के साथ ही संसद को यह अधिकार भी है कि वह न्यायालय अधिकार के साथ ही संसद को यह अधिकार भी है कि वह न्यायालय की शक्तियों को आवश्यकतानुसार सीमित कर सकती है। इस प्रकार न तो ब्रिटेन के समान संसदीय प्रभुसत्ता को स्वीकार किया गया है और न ही अमरीका की भाँति न्यायपालिका की सर्वोच्चता।
मूल रूप से अन्य संघीय प्रावधानों की तरह भारतीय संविधान में दो स्तरीय राजव्यवस्था (केन्द्र व राज्य) का प्रावधान था। बाद में वर्ष 1992 में 73 वें व 74 वें संविधान संशोधन में तीन स्तरीय (स्थानीय) सरकार का प्रावधान किया गया जो विश्व के किसी और संविधान में नहीं है।
संविधान में एक नया भाग (9) तथा एक नई अनुसूची (11वीं) जोङकर वर्ष 1992 के 73 वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसी प्रकार से 74 वें संविधान संशोधन विधेयक, 1992 ने एक नए भाग (9क) तथा नई अनुसूची (12वीं) को जोङकर नगरपालिकाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।
भारत का संविधान न तो विशुद्ध संघात्मक है और न विशुद्ध एकात्मक, बल्कि यह दोनों का सम्मिश्रण है।
एकात्मक संविधान वह संविधान होता है जिसके अन्तर्गत सारी शक्तियाँ एक ही सरकार में निहित होती है जो प्रायः केन्द्र सरकार होती है। प्रांतों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रहना पङता है।
इसके विपरीत संघात्मक संविधान वह संविधान होता है जिसमें शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में विभाजन रहता है और दोनों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं।
भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान की निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं-
भारतीय संविधान में एकात्मता के निम्न लक्षण पाए जाते हैं-
1. विश्व में सबसे पहले संविधान का विचार किसने दिया था ?
उत्तर – ब्रिटेन के सर हेनरी मैन
2. विश्व का सबसे बङा अलिखित एवं पुराना संविधान किसका का है ?
उत्तर – ब्रिटेन
3. सबसे छोटा लिखित संविधान किस देश का है ?
उत्तर – अमेरिका (केवल 7 अनुच्छेद है)
4. भारत में सर्वप्रथम संविधान का विचार किसने दिया था ?
उत्तर – मानवेन्द्र नाथ राॅय
5. भारत में सर्वप्रथम संविधान की माँग करने वाला दल कौनसा था ?
उत्तर – स्वराज दल
6. भारत में सर्वप्रथम संविधान की माँग करने वाले व्यक्ति कौन था ?
उत्तर – मोती लाल नेहरू
7. भारतीय संविधान को जनता तक लाने का श्रेय किसको दिया जाता है ?
उत्तर – पं. जवाहर लाल नेहरू को
8. भारतीय संविधान का जनक किसे कहा जाता है ?
उत्तर – डाॅ. भीमराव अम्बेडकर
9. भारत के संविधान को बनने में कितना समय लगा था ?
उत्तर – 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन
10. संविधान की कुंजी किसे कहा जाता है ?
उत्तर – प्रस्तावना को।
11. के. एम. मुंशी ने प्रस्तावना को किसकी संज्ञा प्रदान की है ?
उत्तर – राजनीतिक जन्मपत्री
12. वर्तमान में मौलिक अधिकारों की संख्या कितनी है ?
उत्तर – 6 मौलिक अधिकार।
13. भारतीय संविधान में वर्तमान समय में कितने अनुच्छेद, कितनी अनुसूचियाँ और कितने भाग है।
उत्तर – 470 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 25 भाग।
14. अनुच्छेद-1 में भारत को क्या बताया गया है ?
उत्तर – राज्यों का संघ
15. विश्व में किस देश का संविधान सबसे बङा लिखित संविधान है ?
उत्तर – भारत का।
16. संविधान के किस संशोधन द्वारा मतदान के लिए आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई ?
उत्तर – 61 वें संविधान संशोधन 1989 द्वारा अनुच्छेद-326 में संशोधन कर।
17. मूल कर्त्तव्य को किस संशोधन द्वारा संविधान में शामिल किया गया ?
उत्तर – 42 वां संविधान संशोधन 1976
18. मौलिक कर्त्तव्य को किस देश के संविधान से लिया गया है ?
उत्तर – रूस
19. संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को किस देश के संविधान से लिया गया है ?
उत्तर – दक्षिण अफ्रीका।
20. प्रस्तावना की भाषा को किस देश के संविधान से लिया गया है ?
उत्तर – ऑस्ट्रेलिया
21. मौलिक अधिकार का प्रावधान को किस देश के संविधान से लिया गया है ?
उत्तर – अमेरिका।
22. भारतीय संविधान में शामिल नीति निर्देशक सिद्धांत किसके संविधान से लिया गया है ?
उत्तर – आयरलैंड।
23. किस संविधान संशोधन के अन्तर्गत मौलिक कर्त्तव्यों को शामिल किया गया है ?
उत्तर – 42 वां संविधान संशोधन 1976
24. संविधान में कितने प्रकार के आपातकालों का प्रावधान है ?
उत्तर – तीन
25. संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी व अखण्डता शब्द किस संविधान संशोधन के अंतर्गत जोङा गया था ?
उत्तर – 42 वां संविधान संशोधन 1976
26. भारतीय संविधान संशोधन की प्रक्रिया किस देश से ली गयी है ?
उत्तर – दक्षिण अफ्रीका।
27. भारतीय संविधान किसके द्वारा स्वीकृत है ?
उत्तर – भारत की जनता द्वारा
28. भारत के संविधान में प्रस्तावना का विचार लिया गया है ?
उत्तर – संयुक्त राज्य अमेरिका।
29. भारतीय संविधान आपात प्रावधान किस देश से ली गयी है ?
उत्तर – जर्मनी
30. संविधान के किस संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया है?
उत्तर – 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा