राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Rashtrakuta Dynasty History and Important Facts in Hindi)राष्ट्रकूट राजवंश: राष्ट्रकूट वंश का आरम्भ दन्तिदुर्ग से लगभग 736 ई. में हुआ था। उसने नासिक को अपनी राजधानी बनाया। इसके उपरान्त इन शासकों ने मान्यखेत, (आधुनिक मालखंड) को अपनी राजधानी बनाया। राष्ट्रकूटों ने 736 ई. से 973 ई. तक राज्य किया।
राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास: राष्ट्रकूट राजवंशका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। इस काल में उन्होंने परस्पर घनिष्ठ परन्तु स्वतंत्र जातियों के रूप में राज्य किया, उनके ज्ञात प्राचीनतम शिलालेखों में सातवीं शताब्दी का राष्ट्रकूट ताम्रपत्र मुक्य है, जिसमे उल्लिखित है की, मालवा प्रान्त के मानपुर में उनका साम्राज्य था (जोकि आज मध्य प्रदेश राजर में स्थित है), इसी काल की अन्य राष्ट्रकूट जातियों में अचलपुर(जो आधुनिक समय में महारास्ट्र में स्थित एलिच्पुर है), के शासक तथा कन्नौज के शासक भी शामिल थे। इनके मूलस्थान तथा मूल के बारे में कई भ्रांतियां प्रचलित है।
एलिच्पुर में शासन करने वाले राष्ट्रकूट बादामी चालुक्यों के उपनिवेश के रूप में स्थापित हुए थे लेकिन दान्तिदुर्ग के नेतृत्व में उन्होंने चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को वहाँ से उखाड़ फेंका तथा आधुनिक कर्णाटक प्रान्त के गुलबर्ग को अपना मुख्य स्थान बनाया। यह जाति बाद में मान्यखेत के राष्ट्रकूटों के नाम से विख्यात हो गई, जो दक्षिण भारत में 753 ईसवी में सत्ता में आई, इसी समय पर बंगाल का पाल साम्राज्य एवं गुजरात के प्रतिहार साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्व और उत्तरपश्चिम भूभाग पर तेजी से सत्ता में आ रहे थे। आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य के काल में गंगा के उपजाऊ मैदानी भाग पर स्थित कन्नौज राज्य पर नियंत्रण हेतु एक त्रिदलीय संघर्ष चल रहा था, उस वक्त कन्नौज उत्तर भारत की मुख्य सत्ता के रूप में स्थापित था। प्रत्येक साम्राज्य उस पर नियंत्रण करना चाह रहा था। मान्यखेत के राष्ट्रकूटों की सत्ता के उच्चतम शिखर पर उनका साम्राज्य उत्तरदिशा में गंगा और यमुना नदी पर स्थित दोआब से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक था। यह उनके राजनीतिक विस्तार, वास्तुकला उपलब्धियों और साहित्यिक योगदान का काल था। इस राजवंश के प्रारंभिक शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे, परन्तु बाद में यह राजवंश जैन धर्म के प्रभाव में आ गया था। राष्ट्रकूट राजवंश के शासकों के नाम एवं उनका शासन काल:
राष्ट्रकूट वंश के शासकों के नाम |
शासन काल |
दन्तिदुर्ग |
(736-756 ई.) |
कृष्ण प्रथम |
(756-772 ई.) |
गोविन्द द्वितीय |
(773-780 ई.) |
ध्रुव धारावर्ष |
(780-793 ई.) |
गोविन्द तृतीय |
(793-814 ई.) |
अमोघवर्ष प्रथम |
(814-878 ई.) |
कृष्ण द्वितीय |
(978-915 ई.) |
इन्द्र तृतीय |
(915-917 ई.) |
अमोघवर्ष द्वितीय |
(917-918 ई.) |
गोविन्द चतुर्थ |
(918-934 ई.) |
अमोघवर्ष तृतीय |
(934-939 ई.) |
कृष्ण तृतीय |
(939-967 ई.) |
खोट्टिग अमोघवर्ष |
(967-972 ई.) |
कर्क द्वितीय |
(972-973 ई.) |
राष्ट्रकूटों ने एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली को जन्म दिया था। प्रशासन राजतन्त्रात्मक था। राजा सर्वोच्च शक्तिमान था। राजपद आनुवंशिक होता था। शासन संचालन के लिए सम्पूर्ण राज्य को राष्ट्रों, विषयों, भूक्तियों तथा ग्रामों में विभाजित किया गया था। राष्ट्र, जिसे मण्डल कहा जाता था, प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।
राष्ट्र के प्रधान को राष्ट्रपति या राष्ट्रकूट कहा जाता था। एक राष्ट्र चार या पाँच ज़िलों के बराबर होता था। राष्ट्र कई विषयों एवं ज़िलों में विभाजित था। एक विषय में 2000 गाँव होते थे। विषय का प्रधान विषयपति कहलाता था। विषयपति की सहायता के लिए विषय महत्तर होते थे। विषय को ग्रामों या भुक्तियों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति में लगभग 100 से 500 गाँव होते थे। ये आधुनिक तहसील की तरह थे। भुक्ति के प्रधान को भोगपति या भोगिक कहा जाता था। इसका पद आनुवांशिक होता था। वेतन के बदले इन्हें करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। भुक्ति छोटे-छोटे गाँव में बाँट दिया गया था, जिनमें 10 से 30 गाँव होते थे।
नगर का अधिकारी नगरपति कहलाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम के अधिकारी को ग्रामकूट, ग्रामपति, गावुण्ड आदि नामों से पुकारा जाता था। इसकी एक ग्राम सभा भी थी, जिसमें ग्राम के प्रत्येक परिवार का सदस्य होता था। गाँव के झगड़े का निपटारा करना इसका प्रमुख कार्य था। इन्हें भी पढे: प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंश और संस्थापक