1857 के संघर्ष को लेकर इतिहासकारों के विचार एक समान नहीं हैं। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि 4 महीनों का यह उभार किसान विद्रोह था तो कुछ इस महान घटना को सैन्य विद्रोह मानते हैं। वी.डी. सावरकर की पुस्तक द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस (1909 में प्रकाशित) में इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना गया था। 20 वीं सदी के शुरुआती दौर के इतिहास लेखन (राष्ट्रवादी इतिहासकार) में इसे वीर स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष दिखाया गया है जो ग़दर के रूप में वर्णित भी है। मंगल पांडे के द्वारा कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में किए गए विद्रोह को एक महत्वपूर्ण घटना माना गया है जो स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई में परिवर्तित हो गया।
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के केंद्र में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण थी। गवर्नर जनरल के तौर पर वारेन हैस्टिंग के शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा राज्यों के क्रमश: अधिग्रहण से उसके क्षेत्र का, साथ ही सेना का लगातार विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश सेना में 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मूल के लोग ही नियुक्त थे। यूरोपीय सैनिकों के विपरीत उन्हें सिपाही का दर्जा मिला था। अभी तक हम प्लासी और बक्सर की लड़ाई में इन सिपाहियों की भक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति देख चुके हैं।
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।
1857 की क्रांति (प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम) से संबंधित जानकारी:
1857 की क्रांति के प्रमुख कारण
- राजनीतिक कारण
- आर्थिक कारण
- सामाजिक तथा धार्मिक कारण
- सैनिक कारण
1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण
1857 की क्रांति होने के ज्यादातर कारण की सम्राज्यवादी नीति से उत्पन्न हुए थे जिसमें डलहौजी की बहुत से सिद्धांतों जैसे गोद-निषेध सिद्धांत जिससे डलहौजी ने अनेक रियासतों को समाप्त कर दिया। डलहौजी द्वारा राज्यों पर कुशासन का आरोप लगातार कई लोगों का अपहरण कर लिया गया जिससे कई रियासतें समाप्त होने लगी और उन पर आश्रित रहने वाले लोगों पर इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। मुगल सम्राट के साथ डलहौजी के दुर्व्यवहार से भी जनता बहुत क्रोधित हो गयी और उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करना शुरू कर दिया। कुछ समय पश्चात यह अफवाह फैली की रूस क्रीमिया युद्ध का बदला लेने के लिए भारत पर आक्रमण कर रहा है जिससे भारतीय प्रोत्साहित हुए और उन्होंने निर्धारित किया की जब अंग्रेज, रूस के साथ युद्ध में उलझे हुए होंगे तब उनके विरुद्ध विद्रोह करने पर उन्हें सफलता मिल सकती है। इस दौरान एक ज्योतिषी ने ये भविष्यवाणी की कि भारत में अंग्रेजों का शासन केवल सौ वर्षों तक ही रहेगा उसके सौ वर्ष बाद उनका शासन समाप्त हो जायेगा। 1757 ई. के प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई थी और अब 1857 में सौ वर्ष पूरे हो चुके थे जिससे 1857 की क्रांति को एक नई दिशा मिली और वे क्रांति के लिए अग्रसर हुए।
- लॉर्ड वैलेजली सहायक संधि- वर्ष 1798 ई॰ में भारत के तत्कालिक गवर्नर-जनरल लॉर्ड वैलेजली ने भारत के सभी राज्यों के साथ सहायक संधि की थी, जिसके तहत:- सभी सहयोगी राजाओं के भूक्षेत्र पर ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियाँ तैनात रहेंगी| उन सैन्य टुकड़ियों के रख-रखाव का खर्चा राजा ही उठाएगा| राजा के दरबार में एक ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त किया जाएगा जो प्रत्येक खबर गवर्नर-जनरल को भेजेगा| राजा किसी और शासक के साथ न तो कोई संधि करेगा और न ही ब्रिटिश संधि को तोड़ेगा। इन सभी बातों को शासको पर जबर्दस्ती थोपा गया था, जिस कारण उनके मन में एक व्यापक आक्रोश का जन्म होने लगा।
- लॉर्ड डलहौजी की लैप्स की नीति- वर्ष 1848 में और तत्कालिक गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने एक ऐसा कानून बनाया जिसके तहत अगर किसी भारतीय शासक का कोई उत्तराधिकारी नहीं है तो उस राज्य का शासन भविष्य में ब्रिटिश सरकार ही करेगी। इस कानून को हड़प का कानून कहा जाने लगा विभिन्न शासक इस कानून पर अपना क्रोध दिखाने लगे थे, और इस क्रोध को और अधिक हवा 1857 के दौरान मिली।
- झांसी के उत्तराधिकारी पर रोक और नाना साहब की पेंशन बंद- जब झाँसी के नरेश गंगाधर राओ का देहांत हो गया तो रानी लक्ष्मीबाई ने एक दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा जाहीर की परंतु ब्रिटिश सरकार ने उन्हे इसकी अनुमति नहीं दी और झांसी पर अपना शासन चालू कर दिया इससे झाँसी की रानी और लोगो में ब्रिटिश सरकार के प्रति गुस्सा बढ़ने लगा। नाना साहब पेशवा बाजीराओ द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। पेशवा की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य का स्थान भी ब्रिटिश साम्राज्य ने ले लिया और नाना साहब को मिलने वाली पेंशन भी रुकवा दी, जिस कारण कानपुर के लोगो ने ब्रिटिश सरकरर का विरोध करना शुरू कर दिया।
- सतारा और नागपुर पर ब्रिटिश का कब्जा- वर्ष 1848 में सतारा के शासक शाहजी की मृत्यु के बाद सतारा पर भी ब्रिटिश साम्राज्य ने लैप्स कानून के तहत अपना कब्जा जमा लिया जिस कारण सतारा के सैनिकों में ब्रिटिश सरकार के प्रति गुस्सा जन्म लेने लगा। इसके तुरंत बाद नागपूर के साथ भी ब्रिटिश सरकार ने वही किया जोकि सतारा के साथ किया गया था। दोनों ही क्षेत्रो के सैनिको और किसानो के मन में ब्रिटिश सरकार को लेकर नकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगे थे।
- जमींदारो तथा किसानों से उनकी जमीन छिनना- ब्रिटिश सरकार ने भारत के अलग-अलग प्रांत अधिक से अधिक कर लगा रखा था और कुछ महत्वपूर्ण कानून बना रखे थे। जब कोई किसान और जमींदार उनकी शर्तो को पूरा नहीं कर पता था तब वह उसकी जमीन और संपत्ति पर अपना कब्जा कर लेते थे। इस कारण किसान और जमींदार दोनों के मन में व्यापक आक्रोश उत्पन्न हुआ।
- डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति :-लार्ड डलहौजी (1848 - 1856) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी। इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रिटिशों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।
- समकालीन परिस्थितियाँ :- भारतीय लोग पहले ब्रिटिश सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रिटिशों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रिटिशों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रिटिशों को भारत से खदेड़ सकते हैं।
- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ दुर्व्यवहार :-मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया।
- व्यापार का विनाश :- ब्रिटिशों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रिटिशों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रिटिशों ने भारत से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रिटिशों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया।
- किसानों का शोषण :-ब्रिटिशों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था।
- अकाल :-अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई।
- इनाम की जागीरे छीनना :-बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यानघ इमाम आयोग ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।
- भारतीय उद्योगों का नाश तथा बेरोजगारी :-ब्रिटिशों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।
- ब्रिटिशों द्वारा भारतीयो के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप :-ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रिटिशों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।
- पाश्चात्य संस्कृति को प्रोत्साहन :- ब्रिटिशों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रिटिशों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रिटिश उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।
- पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव :-पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रिटिश शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रिटिशों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रिटिश पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।
- भारतीयों के प्रति भेद-भाव नीति :-ब्रिटिश भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे घृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिशों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।
- भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रिटिशों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रिटिशों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रिटिश सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं -
- बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
- ब्रिटिशों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
- ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
- 1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया।
1857 की क्रांति के आर्थिक कारण :-
1857 की क्रांति होने के कारणों में आर्थिक कारण भी मुख्य रूप से सम्मिलित किए जाते है। अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण करना आरम्भ किया और देश के परम्परागत ढांचे को बदलने का पूरा प्रयास किया तो इससे भारतीय समाज में असंतोष और क्रोध उत्पन्न हुआ इसके अलावा अंग्रेजों ने बहुत बड़ी संख्या में किसानों और दस्तकारों की स्थिति पर भी बहुत बुरा प्रभाव डाला जिसके पश्चात भारतीय समाज की इस स्थिति ने एक क्रांति का रूप धारण कर लिया था।
- भारतीय कारीगरों से उनकी रोजी-रोटी छिनना- इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण मशीनों से बने उत्पाद अत्यंत सस्ते दामो में भारत में बिकने लगे थे जिस कारण भारतीय कारीगरों के रोजगार के साधन छीनने लगे थे और ऊपर से ब्रिटिश सरकार ने उनके ऊपर अधिक कर भी लगा रखा था जिस कारण उन कारीगरों के मन मे असंतोष की भावना ने जन्म लेना शुरू कर दिया था। जिसके कारण भारतीय माल महंगा हो जाता था महंगा होने के कारण भारतीय माल को विदेशों में नहीं खरीदा जाता था और भारतीय व्यापार संघ को भारी नुकसान उठाना पड़ता था।
- अंग्रेज़ो की व्यापारिक नीति-अंग्रेज़ो की व्यापारिक नीति के कारण भारत के सभी भारतीयों के व्यापार ठप्प पड़ गए थे। भारतीय उत्पादो को विदेशों में भेजने के लिए अत्यधिक शुल्क देना पड़ता था, जिसमे मुनाफे के स्थान पर घाटा होने की संभावना अधिक होती थी और भारतीय उत्पादो को भारत में कोई खरीदने को तैयार नहीं था क्यूंकी इनकी कीमत इंग्लैंड के उत्पादो से अधिक होती थी जिस कारण भारतीय व्यापार लगभग समाप्त हो गया और भारतीय व्यापारियों के मन में गुस्सा बढ़ने लगा।
- ब्रिटिश साम्राज्य की स्थायी बंदोबस्त की नीति और अत्यधिक कर-ब्रिटिश सरकार ने स्थायी बंदोबस्त की नीति के तहत भारत के जमींदारो को जमीन का मालिक बना दिया था। जिस जमींदार एक निश्चित मात्र में कर को सरकारी खजाने में जमा करा देते थे और किसानो से अधिक से अधिक मात्र में कर वसूल लेते थे। सामान्य जनता पर भी सरकार ने बहुत अधिक मात्रा में कर लगा रखा था, जिस कारण सामान्य जनता भी सरकार का विरोध करने लगी थी।
1857 की क्रांति के सामाजिक तथा धार्मिक कारण
1857 की क्रांति में कई सामाजिक कारण भी सम्मिलित थे, अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज का मजाक उड़ाया जाने से भारतीय समाज में इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा इसके अलावा भारतीय समाज में पश्चिमी समाज का अत्यधिक प्रभाव पड़ने के कारण भारतीयों को यह लगा की इससे हमारे समाज का अस्तित्व ख़त्म हो जायेगा और उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करना शुरू कर दिया।
जब लोगों ने यह महसूस किया की अंग्रेजी शासन व्यवस्था की वजह से भारतीय समाज के धर्म चरम सीमा में आने की स्थिति में है तो उन्होंने अंग्रेजी शासन व्यवस्था की कटु आलोचना एवं विरोध करना शुरू कर दिया। धर्मों में खतरे का प्रमुख दौर तब नजर आया जब ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों ने स्कूलों, अस्पतालों, जेलों एवं बाजारों में जाकर वहां के लोगों को हिन्दू एवं इस्लाम धर्म की कटु आलोचना करके उन्हें ईसाई बनाने का प्रयास किया। मिशनरी द्वारा हिन्दू एवं ईसाई धर्म की परम्पराओं एवं मान्यताओं का मजाक उड़ाया जाता था जिससे लोगों में उनके प्रति विरोध की भावना उत्पन्न होने लगी।
अंग्रेजों का अत्याचार राजनीति और आर्थिक कारण तक ही सीमित नहीं था। अंग्रेज सामाजिक और धार्मिक रूप से भी भारतीय जनता पर अत्याचार करने लगे जो Revolt of 1857 का एक कारण रहा। Revolt of 1857 in Hindi के सामाजिक तथा धार्मिक कारण निम्नलिखित है-
- भारतवासियों को ईसाई पादरी लालच देकर ईसाई बना रहे थे। जिसके कारण भारतीय जनता अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई।
- अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण भारतवासियों में असंतोष उत्पन्न हो गया।
- अंग्रेजों का अत्याचार ईसाई बनाने तक ही सीमित नहीं था वह अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने के साथ-साथ हिंदू धर्म के ग्रंथों की घोर निंदा करते थे जिससे भारतीय लोग क्रोधित हो उठे।
- 1856 का धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम- ब्रिटिश सरकार ने 1856 में एक कानून बनाया जिसके तहत ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को ही अपने पैतृक संपत्ति का हकदार माना गया और उन्हें नौकरियों में पदोन्नति, शिक्षा संस्थानों में प्रवेश की सुविधा प्रदान की गई। इस कानून के कारण बड़े व्यापक स्तर पर पादरियों ने हिन्दू और मुस्लिम को ईसाई बनाया जिस कारण भारतीय धार्मिक समाज अंग्रेज़ो पर क्रोधित होने लगा।
- भारतीय समाज में सुधार कार्य- ब्रिटिश साम्राज्य ने उस समय भारतीय समाज की कुछ कुरीतियों को देखा और उन्हे सही करने का फैसला किया, जैसे वर्ष 1829 में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने राजा राम मोहन राय की सहायता से सती प्रथा को समाप्त कर दिया था और बाल विवाह पर रोक लगा दी थी। इससे भारतीय हिंदुओं ने इसे अपने धर्म के विरुद्ध समझा और ब्रिटिश सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया।
- अंग्रेजी शिक्षा- अंग्रेज़ो ने भारतीय समाज को शिक्षित करने के लिए अंग्रेजी स्कूलों की शुरूआत की थी, जिसमें उन्होने भारतीयो को शिक्षा प्रदान करना शुरू किया इससे भारत के सभी धर्मो के लोगो को यह लगने लगा था की वह भारतीयो को अवश्य ईसाई बनाना चाहते है इसलिए उन्होने ने अंग्रेजी स्कूलों की शुरूआत की।
- ईसाई प्रचारकों द्वारा अन्य धर्मों की निंदा- ईसाई प्रचारको ने भारत में अपने धर्म को सर्वश्रेष्ट बताने के लिए अन्य धर्मो के ग्रंथो और सिद्धांतों को गलत बताना शुरू कर दिया जिस कारण भारत में अंग्रेज़ो के खिलाफ बड़े व्यापक स्तर पर गुस्सा बढ़ने लगा था।
1857 की क्रांति के सैनिक कारण :-
1857 की क्रांति होने का प्रमुख कारण मुख्यतः सिपाहियों का विद्रोह था जिसमें वे सिपाही भी शामिल थे जिन्हें शासन द्वारा अच्छी प्रतिष्ठा एवं आर्थिक सुरक्षा भी प्राप्त थी। अच्छी प्रतिष्ठा एवं आर्थिक स्थिति अच्छी होने के कारण भी इन सिपाहियों द्वारा शासन का विद्रोह किया गया था इसका मुख्य कारण यह था कि ये सिपाही भी भारतीय थे और जब भारतीय लोगों पर शासन द्वारा अत्याचार किए थे तो इन सिपाहियों को भी पीड़ा हुआ करती थी इसीलिए विद्रोह के समय इन सिपाहियों ने शासन का विरोध कर लोगों का सहयोग किया।
- भारतीय सैनिकों को समुद्र पर लड़ने के लिए भेजना - वर्ष 1856 में एक ऐसा कानून पास किया गया जिसके अनुसार लड़ने के लिए समुद्र पार भेजा जा सकता था, परंतु हिन्दू सैनिक समुद्र पार जाना अपने धर्म के खिलाफ समझते थे।
- भारतीय सैनिकों के साथ अभद्र व्यवहार - ब्रिटिश सैनिक परेड के दौरान भारतीय सैनिकों के साथ अभद्र व्यवहार करते थे। वे भारतीयो के सामने ही उनकी सभ्यता, संस्कृति और धर्म का मजाक उड़ाते थे, जिस कारण भारतीय सैनिकों का आक्रोश अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बढ़ने लगा था।
- वेतन, पदोन्नति और तैनाती में भारतीयो के साथ भेदभाव - भारतीय सैनिकों के साथ ब्रिटिश प्रशासन भेदभाव वाली नीति अपनाता था, वे केवल ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों के ही वेतन और पद में उन्नति करते थे। वह भारतियों की तैनाती भी अशांत इलाको में करते थे जबकि ब्रिटिश सैनिकों की तैनाती शांत व साफ इलाको में करते थे।
1857 की क्रांति के तात्कालिक कारण :-
चर्बी वाले कारतूस- 1857 की क्रांति का तात्कालिक कारण सैनिकों को दिये गये नए चर्बी वाले कारतूस थे। इन नए करतूसों पर सूअर और गाय की चर्बी लगी होती थी, जिसे मुंह से फाड़कर ही बन्दको में डाला जाता था। ब्रिटिश सेना में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सम्मिलित थे और उन्होने इसे अपने धर्म के खिलाफ मान कर उपयोग करने से माना कर दिया था परंतु ब्रिटिश सरकार ने उनकी बातों को नहीं माना। सबसे पहले इन चर्बी वाले कारतूसों का उपयोग करने का विरोध बैरकपुर छावनी के सैनिक ने किया था। इन करतूसों की सच्चाई जानकार मंगल पांडे ने गुस्से में आ कर एक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या भी कर दी थी।
1857 की क्रांति का प्रसार :-
- दिल्ली पर कब्जा करने के बाद शीघ्र ही है विद्रोह मध्य एवं उत्तरी भारत मेँ फैल गया।
- 4 जून को लखनऊ मेँ बेगम हजरत हजामत महल के नेतृत्व मेँ विद्रोह का आरंभ हुआ जिसमें हेनरी लॉटेंस की हत्या कर दी गई।
- 5 जून को नाना साहब के नेतृत्व मेँ कानपुर पर अधिकार कर लिया गया नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया।
- झांसी मेँ विद्रोह का नेतृत्व रानी लक्ष्मी बाई ने किया।
- झांसी के पतन के बाद लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर मेँ तात्या टोपे के साथ मिलकर विद्रोह का नेतृत्व किया। अंततः लक्ष्मीबाई अंग्रेजोँ जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।
- रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु पर जनरल ह्यूरोज ने कहा था, भारतीय क्रांतिकारियोँ मेँ यहाँ सोयी हुई औरत मर्द है।
- तात्या टोपे का वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग था। वे ग्वालियर के पतन के बाद नेपाल चले गए जहाँ एक जमींदार मानसिंह के विश्वासघात के कारण पकडे गए और 18 अप्रैल 1859 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
- बिहार के जगरीपुर मेँ वहाँ के जमींदार कुंवर सिंह 1857 के विद्रोह का झण्डा बुलंद किया।
- मौलवी अहमदुल्लाह ने फैजाबाद में 1857 के विद्रोह का नेतृत्व प्रदान किया।
- अंग्रेजो ने अहमदुल्ला की गतिविधियो से चिंतित होकर उसे पकड़ने के लिए 50 हजार रुपए का इनाम घोषित किया था।
- खान बहादुर खान ने रुहेलखंड मेँ 1857 के विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया था, जिसे पकड़कर फांसी दे दी गई।
- राज कुमार सुरेंद्र शाही और उज्जवल शाही ने उड़ीसा के संबलपुर मेँ विद्रोह का नेतृत्व किया।
- मनीराम दत्त ने असम मेँ विद्रोह का नेतृत्व किया।
- बंगाल, पंजाब और दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों ने विद्रोह मेँ भाग नहीँ लिया।
- अंग्रेजो ने एक लंबे तथा भयानक युद्ध के बाद सितंबर, 1857 मेँ दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया।
1857 की क्रांति की असफलता के कारण -
- यह विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रास की सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का पूरा समर्थन किया।
- अच्छे साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए।
- 1857 ई. के इस विद्रोह के प्रति शिक्षित वर्ग पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता।
- इस विद्रोह में राष्ट्रीय भावना का पूर्णतयाः अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले।
- विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी।
- सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेना नायक थे।
- क्रान्तिकारियों के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यकता थी।
- विद्रोही क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे।
- आवागमन एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल करने में सहयोग दिया।
- होने से पहले मेरठ छावनी के सभी सैनिकों ने इस क्रांति की देशव्यापी शुरुआत करने के लिए 31 मई, 1857 का दिन निर्धारित किया था जिससे क्रांति के प्रभावों को और व्यापक रूप दिया जा सकता था परन्तु सैनिकों ने आक्रोश में आकर निर्धारित समय से पहले ही 10 मई, 1857 को विद्रोह करना शुरू कर दिया जिस कारण क्रांति की शुरुआत देश के सभी क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर हुई जिसका यह परिणाम सामने आया की अंग्रेजों द्वारा क्रांतिकारियों का दमन करना बहुत सरल हो गया था।
यदि देश के सभी क्षेत्रों में क्रांति की शुरुआत एक साथ होती तो इसके परिणाम बहुत अच्छे हो सकते थे लेकिन सैनिकों की यह कार्यवाही 1857 क्रांति की असफलता का सबसे बड़ा कारण बनी। इसके अलावा अन्य कारण भी थे जिससे 1857 की क्रांति असफल हुई वे कारण निम्नलिखित है -
1. क्रांति का देशव्यापी प्रसार न होना -
हालांकि 1857 की क्रांति ने बहुत कम समय में ही देश में व्यापक रूप धारण कर लिया था परन्तु फिर भी इसका देशव्यापी विस्तार नहीं हो पाया। यदि क्रांति का विस्तार सम्पूर्ण देश में एक साथ होता तो अंग्रेजों को अपनी सेनाओं को भारत के सभी क्षेत्रों में तैनात करना पड़ता जिससे उनकी सेना की संख्या पूरे भारत के लिए कम पड़ जाती और शायद आजादी का यह प्रथम विद्रोह सफल हो जाता। इस क्रांति के असफल होने का कारण यह भी था की क्रांति के दौरान पंजाब और संपूर्ण दक्षिण प्रांतों के अधिकांश क्षेत्रों में इस क्रांति का विस्तार न के बराबर था और देश के अहम शासकों जैसे होल्कर, सिंधिया, जोधपुर के राणा और अन्य सभी ने इस विद्रोह का समर्थन नहीं किया।
2. प्रभावी नेतृत्व का न होना -
1857 की क्रांति की असफलता का एक कारण यह भी है की विद्रोह का एक प्रभावशाली नेतृत्व नहीं किया गया था। इस क्रांति में विद्रोहियों के साथ मिलकर कार्य करने की शक्ति, अनुभव एवं संगठन का निर्माण नहीं किया गया था किन्तु फिर भी रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब और तांत्या टोपे ने कुशल नेतृत्व की कमान संभाली हुई थी। क्रांति के विद्रोह में स्पष्ट व ठोस लक्ष्यों एवं विद्रोहियों के एक कदम के बाद अगला कदम क्या होगा यह भी निर्धारित नहीं किया गया था वे केवल आक्रोश की परिस्थिति में ही आगे बढ़ रहे थे।
3. सैनिक संख्या में अंतर -
1857 की क्रांति के सैनिकों की संख्या अंग्रेजों की सैनिकों की अपेक्षा बहुत कम थी क्योंकि देशी रियासतों द्वारा अपने सैनिकों को अंग्रेजी सेना के सहयोग के लिए भेज दिया गया था। इन सभी परिस्थितियों के बावजूद भी भारतीय सैनिकों ने अदम्य साहस के साथ कई अंग्रेजी सैनिकों को मात दी परन्तु फिर भी कुछ कमियों के कारण वे असफल हो गए।
4. संसाधनों का अभाव -
1857 की क्रांति में आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रों के उपयोग से वंचित रह गए थे जो उनकी असफलता का कारण था। इस क्रांति में क्रांतिकारियों ने तलवारों एवं भालों का उपयोग किया था इसके विपरीत विरोधी ब्रिटिश सेना ने आधुनिक तोपों एवं बंदूकों का इस्तेमाल किया जिससे क्रांतिकारी कमजोर पड़ गए। इसके अलावा 1857 की क्रांति में अंग्रेजों द्वारा डाक, तार, रेल एवं अन्य सभी संचार के सत्ताधारी साधनों का भरपूर प्रयोग किया गया और क्रांतिकारियों को ये सभी साधन उपलब्ध नहीं हो पाए जिनके प्रभावों से उनकी असफलता निश्चित हो गई।
5. आपसी फूट और बहादुरशाह के प्रति द्वेष -
1857 की क्रांति के दौरान ब्रिटिश सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को गुमराह करने में असफल हो गई थी परन्तु वे सांप्रदायिक तौर पर सिक्ख रेजिमेंट और मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में सफल हो गई। अंग्रेजों ने , सिक्खों एवं गोरखाओं को बहादुरशाह के विरुद्ध खड़ा करके यह कहा की यदि बहादुरशाह के हाथों में सत्ता दुबारा आ गई तो उन सभी पर अत्याचार होगा जिससे उनके मन में बहादुरशाह के प्रति द्वेष की भावना उत्पन्न हो गई। इसके अलावा और भी ऐसे कारण है जिसने देशवासियों में फूट डालने और एकता को भंग करना का प्रयास किया था। इन सभी कारणों से देश में सहयोग की भावना का अंत होने लगा जो शायद क्रांतिकारियों को कमजोर करने का प्रमुख कारण था।
1857 के विद्रोह के परिणाम :-
- विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया।
- 1857 की विद्रोह के बाद 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित करके, भारत मे कंपनी शासन का अंत कर दिया गया तथा भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक मंत्रणा परिषद् बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
- सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
- 1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्तन कर उसे वायसराय का पदनाम दिया गया।
- क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामंतवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
- विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
- 1857 ई. की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
- भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में भारतीय परिषद् अधिनियम को पारित किया गया।
- भारत में मुगल सत्ता का अंत हो गया।
- भारतीय शासकों को दत्तक पुत्र लेने की अनुमति दी गई।
- अंग्रेजों ने भारत के देशी राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने से मना कर दिया गया।
- भारत के गवर्नर जनरल को वायसराय बना दिया गया।
- 1 नवंबर 1858 ई. को विक्टोरिया द्वारा सरकारी नौकरी योग्यता के आधार पर दी जाएगी ऐसी घोषणा की गई।
- अंग्रेजों ने फिर फूट डालो राज करो की नीति अपना ली।
- सामन्त वर्ग की शक्ति को खत्म करने की नीति अपनाई।
- अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का विकास किया गया।
- यातायात के साधनों का विकास
- भारत के गवर्नर जनरल को अब वायसराय कहा जाने लगा।
- बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स और बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल खत्म करके भारत सचिव के साथ 15 सदस्यीय भारतीय परिषद की स्थापना की गई।
- 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा सेना के पुनर्गठन के लिए स्थापति पील आयोग की रिपोर्ट पर सेना मेँ भारतीय सैनिकों की तुलना मेँ यूरोपियो का अनुपात बढ़ा दिया गया।
- भारतीय रजवाड़ों के प्रति विजय और विलय की नीति का परित्याग कर सरकार ने राजाओं को गोद लेने की अनुमति प्रदान की।
- स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी।
1857 की क्रांति से कंपनी शासन का अंत -
1857 के विद्रोह का प्रमुख परिणाम यह रहा कि 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित किया जिसमें भारत में कंपनी के शासन का अंत कर दिया गया और ब्रिटिश भारत का प्रशासन ब्रिटिश ताज (क्राउन) ने ग्रहण कर लिया था। इसके अलावा बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल एवं बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स समाप्त कर दिए गये और इसके स्थान पर भारत सचिव और उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की इंडिया कौंसिल बनाई गई। कंपनी द्वारा भारत में किये गये सभी समझौतों को मान्यता प्रदान की गई। क्रांति के पश्चात भारत के गवर्नर जनरल को वायसराय कहा जाने लगा था। भारत में 1857 के विद्रोह के बाद जो परिवर्तन आए उससे सम्पूर्ण भारत में नए युग का सूत्रपात हुआ।
1857 की क्रांति के बाद महारानी का घोषणा पत्र -
1857 के विद्रोह के बाद जनसाधारण का जीवन अस्त-व्यस्त व अशांत हो गया इस दौरान जनता में शांति बनाने के लिए जनता के लिए निश्चित नीति एवं सिद्धांतों की घोषणा के लिए इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) में धूमधाम से एक दरबार का आयोजन किया गया जिसमें 1 नवंबर, 1858 को ने महारानी द्वारा भेजा गया घोषणा-पत्र पढ़कर सुनाया गया। महारानी के इस घोषणा पत्र को मेग्नाकार्टा कहा जाता है। घोषणा पत्र में लिखी गई प्रमुख बातें निम्नलिखित है -
- भारत में जितना अंग्रेजों का राज्य विस्तार है वह पर्याप्त है, इससे ज्यादा अंग्रेजी राज्य-विस्तार नहीं होगा।
- देसी राज्यों व नरेशों के साथ जो समझौते व प्रबंध निश्चित हुए हैं, उनका ब्रिटिश सरकार सदा आदर करेगी तथा उनके अधिकारों की सुरक्षा करेगी।
- धार्मिक सहिष्णुता एवं स्वतंत्रता की नीति का पालन किया जायेगा।
- भारतीयों के साथ स्वतंत्रता का व्यवहार किया जायेगा तथा उनके कल्याण के लिए कार्य किये जायेंगे।
- प्राचीन रीति-रिवाजों, संपत्ति आदि का संरक्षण किया जायेगा।
- सभी भारतीयों को निष्पक्ष रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त होगा।
- बिना किसी पक्षपात के शिक्षा, सच्चरित्रता और योग्यतानुसार सरकारी नौकरियां प्रदान की जायेंगी।
- उन सभी विद्रोहियों को क्षमादान मिलेगा, जिन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या नहीं की है।
1857 की क्रांति से सेना पुनर्गठन -
शासन द्वारा पील आयोग की रिपोर्ट पर जाति और धर्म के आधार पर रेजीमेंट को बाँट दिया गया और सेना में भारतीयों की अपेक्षा यूरोपीयों सैनिकों की संख्या को बड़ा दिया गया। इसके अलावा उच्च पदों से भारतीयों को वंचित रखा गया और तोपखाना व अन्य महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को यूरोपियों के हवाले कर दिया गया।
फूट डालो राज करो नीति -
1857 की क्रांति में कई हिन्दू एवं मुसलमानों ने भाग लिया जिसमें मुसलमानों, हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक उत्साहित थे। अंग्रेजों ने हिन्दुओं का पक्ष लेकर हिन्दुओं और मुस्लिमों के मध्य फूट डालो राज करो का माध्यम को अपनाया जिसका परिणाम यह हुआ की हिन्दू और मुसलमानों में मनमुटाव पैदा हो गया जिसका भावी राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
देसी रियासतों के लिए नीति में परिवर्तन -
1857 की क्रांति के पश्चात राज्यों को हड़पने की नीति को त्याग दिया गया और अधीनस्थ संघ की नीति प्रारम्भ करके देसी रियासतों को अधिनस्त किया गया। इसके अलावा भारतीय रजवाड़ों के प्रति विजय और विलय की नीति का परित्याग कर सरकार ने राजाओं को बच्चे गोद लेने की अनुमति प्रदान की जिससे वे अपने वंश को आगे बड़ा सकते थे।
1857 के विद्रोह से सम्बंधित महत्वपूर्ण स्मरणीय तथ्य :-
- बहादुर शाह दिल्ली मेँ प्रतीकात्मक नेता था। वास्तविक नेतृत्व सैनिकों की एक परिषद के हाथों मेँ था, जिसका प्रधान बख़्त खान था।
- 1857 के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग था।
- यह विद्रोह सत्ता पर अधिकार के बाद लागू किए जाने वाले किसी सामाजिक विकल्प से रहित था।
- 1857 के विद्रोह मेँ पंजाब, राजपूताना, हैदराबाद और मद्रास के शासकों ने बिल्कुल हिस्सा नहीँ लिया।
- विद्रोह की असफलता के कई कारण थे, जिसमेँ प्रमुख कारण था एकता, संगठन और साधनों की कमी।
- बंगाल के जमींदारों ने विद्रोहियोँ को कुचलने के लिए अंग्रेजो की मदद की थी।
- बी. डी. सावरकर ने अपनी पुस्तक भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के माध्यम से इस धारणा को जन्म दिया कि, 1857 का विद्रोह एक सुनियोजित राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था।
- वास्तव मेँ 1857 का विद्रोह मात्र सैनिक विद्रोह नहीँ था, बल्कि इसमेँ समाज का प्रत्येक वर्ग शामिल था। विद्रोह मेँ लगभग डेढ़ लाख लोगोँ की जानेँ गई।
1857 के विद्रोह क्रांति का दमन
- क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममता पूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।
- अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
FAQ :-
लॉर्ड कैनिंग
भारत में 1857 ई० के विद्रोह के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री कौन था।
पामर्स्टन
1857 के विद्रोह में भारत का गवर्नर कौन था?
कैनिन
1857 के महान विद्रोह की शुरुआत कब हुई थी और उसका केंद्रित स्थान कहां था?
10 मई, 1857 ई० को मेरठ