जन्म |
335 ईस्वी |
जन्मस्थान |
इंद्रप्रस्थ |
मृत्यु |
380 ईस्वी |
मृत्युस्थान |
पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना, बिहार) |
माता |
लिच्छवी कुमारी देवी |
पिता |
चंद्रगुप्त प्रथम |
उपनाम |
भारत का नेपोलियन, कवियों का राजा |
पत्नी |
दत्ता देवी |
पुत्र |
चंद्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त |
शासनकाल |
335-375 ईस्वी |
साम्राज्य |
गुप्त साम्राज्य |
समुद्रगुप्त का जीवन परिचय -
समुद्रगुप्त का जन्म 335 ईस्वी में भारत के इंद्रप्रस्थ शहर में हुआ था। इनके पिता का नाम चंद्रगुप्त प्रथम तथा माता का नाम कुमार देवी था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने वृद्ध होने पर समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी चुना और उसे ही सत्ता सौंप दी थी। चन्द्रगुप्त ने समुद्रगुप्त को गले लगाकर, कहा कि – तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो। यह कहते हुए उसे सिंहासन सौंप दिया था। इन्हें बचपन से ही कविता और संगीत से बहुत लगाव था। समुद्रगुप्त एक मशहूर कवि और संगीतकार था, इसलिए उसे संस्कृति का इंसान कहा जाता है। समुद्रगुप्त के सिक्के पर उसे वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया है।
कुछ विद्वानों का ऐसा विचार है कि समुद्रगुप्त के अन्य भाइयों ने उसके निर्वाचन का विरोध किया तथा समुद्रगुप्त को उनके साथ युद्ध लङना पङा।
इस विद्रोह का नेतृत्व काच नामक उसके भाई ने किया। काच चन्द्रगुप्त का बङा पुत्र था। जिसने उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन प्राप्त किया। समुद्रगुप्त ने अपने बङे भाई की हत्या कर उससे राजगद्दी हङप ली।
समुद्रगुप्त भारतीय इतिहास में सबसे महान सम्राटों में से एक थे। समुद्रगुप्त महान् विजयी और उदार शासक था।
समुद्रगुप्त के वैवाहिक संबंध :-
समुद्रगुप्त ने अपने जीवनकाल में कई शादियां की थी। लेकिन किसी से भी उसे पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। समुद्रगुप्त को पुत्र की प्राप्ति अपनी पटरानी अगृमहिषी पट्टामहादेवी से हुई थी। इसी से चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (Chandragupta Vikramaditya) का जन्म हुआ था, इसने ही बाद में गुप्त साम्राज्य को आगे बढ़ाया था।
समुद्रगुप्त की उपाधियां –
- चन्द्रप्रकाश
- धरणीबन्ध
- प्रथब्याप्रतिरथ
- भारत का नेपोलियन
- कविराज
- लिच्छवी दौहीत।
समुद्रगुप्त का इतिहास –
समुद्रगुप्त के युद्ध तथा विजय –
- समुद्रगुप्त के विषय में जानकारी के स्रोत एरण अभिलेख एवं प्रयाग प्रशस्ति है।
- समुद्रगुप्त के राज्य की राजधानी पाटिलपुत्र है।
- समुद्रगुप्त एक महान् विजेता तथा साम्राज्यवादी शासक था। इस साम्राज्यवादी नीति से ही समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियान प्रारम्भ किये थे।
- प्रयाग प्रशस्ति में उसकी दिग्विजय का उल्लेख किया गया है तथा इसमें समुद्रगुप्त को सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने वाला कहा गया है।
आर्यावर्त का प्रथम युद्ध-
अपनी दिग्विजय के तहत सम्राट समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक साधारण-सा युद्ध किया। इस युद्ध में समुद्रगुप्त ने तीन शक्तियों को पराजित किया – अच्युत, नागसेन व कोतकुलज।
दक्षिणापथ का युद्ध –
दक्षिणापथ से तात्पर्य उत्तर में विंध्याचल पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। महाभारत में कोशल तथा विदर्भ में अवस्थित देश ही दक्षिणापथ कहलाया था। समुद्रगुप्त ने गंगा घाटी के मैदानो तथा दोआब के प्रदेश की विजयी की थी, उसके बाद वह दक्षिण भारत की विजय के लिए निकल पङा। प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिणापथ के 12 राजाओं तथा उनके राज्यों का नाम मिलता है।
दक्षिणापथ के 12 राजाओं को समुद्रगुप्त ने पहले तो जीता किन्तु बाद में उन्हें स्वतंत्र कर दिया। इस नीति को धर्मविजयी राजा की नीति कहा जा सकता है।
दक्षिणापथ के 12 राजाओं के नाम इस प्रकार हैं –
- कोशल का राजा महेन्द्र (दक्षिण कोसल)
- महाकान्तर का व्याघ्रराज
- कौराल का राजा मण्टराज
- कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
- एण्डपल्ल का राजा दमन
- कांची का राजा विष्णु गोप
- अवमुक्त का नीलराज
- बेगी का हस्तीवर्मा
- पालम्क का उग्रसेन
- देवराष्ट्र का कुबेर
- कुस्थलपुर का धनंजय
- पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरी
नीति – समुद्रगप्त ने देशी राजाओं के साथ ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति अपनाई।
आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध -
दक्षिणापथ के अभियान से अलग होने के बाद समुद्रगुप्त (Samudragupt) ने उत्तर भारत में दोबारा एक युद्ध किया, जो आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध कहलाता है। समुद्रगुप्त ने प्रथम युद्ध में उत्तर भारत के राजाओं को हराया था लेकिन उनका उन्मूलन नहीं किया। जब ये दक्षिण भारत में था तब राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के शासकों ने पुनः स्वतंत्र होने की कोशिश की। लेकिन दक्षिण की विजय से वापस लौटाने के बाद समुद्रगुप्त ने इन शासकों को पूरी तरह से बाहर निकाल दिया था। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की इसी नीति को ’प्रसभोद्धरण’ कहा गया है। साथ ही समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं को नष्ट करके उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
प्रयाग प्रशस्ति की 21 वीं पंक्ति में आर्यावर्त के 9 राजाओं का उल्लेख हुआ है, जो निम्न है –
1. रुद्रदेव
2. मत्तिल
3. नागदत्त
4. चंद्रवर्मा
5. गणपतिनाग
6. नागसेन
7. अच्युत
8. नंदि
9. बलवर्मा।
आटविक राज्यों की विजय -
समुद्रगुप्त (Samudragupta Empire) ने उत्तरी भारत के राज्यों पर विजय प्राप्त करने के बाद आटविक राज्यों पर विजय प्राप्त की। फ्लीट महोदय के अनुसार उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के वनप्रदेश ये सभी राज्य फैले हुए थे। समुद्रगुप्त ने आठ आटविक राजाओं को परास्त किया था। जब समुद्रगुप्त दक्षिण अभियान पर निकला था तब इन राजाओं ने उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न की थी। इसी कारण समुद्रगुप्त के लिए उत्तर तथा दक्षिण भारत के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिए इन राज्यों को नियंत्रित में रखना आवश्यक था। अतः समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को पराजित कर अपने अधिकार में ले लिया।
सीमावर्ती राज्यों की विजय -
समुद्रगुप्त ने सीमावर्ती राज्यों के शासकों को भी अपने अधीन कर लिया। इलाहाबाद अभिलेख में इन राजाओं की दो श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। उत्तर तथा उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित पाँच राज्य – समटक, ढवाक, कामरू, कर्तृपुर तथा नेपाल तथा नौ गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। नौ गणराज्यों के नाम – मालव गणराज्य, अर्जुनायन गणराज्य, यौधेय गणराज्य, मद्रक गणराज्य, आमीट गणराज्य, अर्जुन गणराज्य, खरपरिक गणराज्य, सनकानिक गणराज्य और काक गणराज्य। इन राज्यों के शासक समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के ’कर’ देते थे। उसके आज्ञाओं का पालन करते थे और उसे प्रणाम करने के लिए राजधानी में उपस्थित होते थे। समुद्रगुप्त ने उत्तर पूर्व के राजाओं तथा पश्चिम में नौ गणराज्यों को पराजित किया था तथा उन्हें अपना अधीन कर लिया था। बंगाल का सुप्रसिद्ध बंदरगाह ताम्रलिपि था, जहाँ से मालवा जहाज मलय प्रायद्वीप, श्रीलंका, चीन तथा पूर्वी द्वीपों को जाया करते थे। इस तरह समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियानों से पूरे भारत में अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।
विदेशी राज्यों पर विजय -
समुद्रगुप्त की विजयों और सैनिक शक्ति से भयभीत होकर पङोस के विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त से अधीन मैत्री कर ली। इन विदेशी राज्यों को निम्नलिखित शर्तें स्वीकार करनी पङती थीं – (1) आत्म निवेदन, (2) कन्योपायन (अपनी राजकुमारियों को विवाह हेतु समुद्रगुप्त को अर्पित करना), (2) कन्योपायन (अपनी राजकुमारियों को विवाह हेतु समुद्रगुप्त को अर्पित करना), (3) दान (समुद्रगुप्त को उपहार आदि भेंट करना), (4) सिंहल द्वीपवासी (लंका का राजा मेघवर्ण), (5) सर्व द्वीपवासी (दक्षिण-पूर्व एशिया के हिन्दू उपनिवेश)।
हरिषेण की ’प्रयाग प्रशस्ति’ में यह भी उल्लेखित है कि कुछ विदेशी राजाओं ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
इन विदेशी राज्यों का उल्लेख इस प्रकार है –
देवपुत्र-शाही-शाहानुशाही – उत्तर-पश्चिम भारत में शासन करने वाले कुषाण थे। इसने समुद्रगुप्त से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये थे।
शक – उत्तर-पश्चिमी तथा पश्चिमी भारत में स्थापित थे।
मुरुण्ड – अफगानिस्तान में विद्यमान।
सैडल – लंका में स्थापित। इनसेे भी समुद्रगुप्त के अच्छे संबंध स्थापित थे।
अश्वमेघ यज्ञ -
समुद्रगुप्त ने अनेक विजय प्राप्त करने के बाद अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। इस अवसर पर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध शैली के सोने के सिक्के चलाए। इन सिक्कों के एक तरफ यज्ञ-स्तम्भ पर बंधे हुए अश्व की मूर्ति चित्रित है और दूसरी ओर समुद्रगुप्त की महारानी हाथ में चंवर लिए खङी है। इन पर अश्वमेध पराक्रमः अंकित है।
समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन क्यों कहा जाता है –
डाॅ. स्मिथ महोदय ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा था।’’
समुद्रगुप्त की तुलना किस यूरोपीय शासक से की जाती है –
समुद्रगुप्त की तुलना नेपोलियन यूरोपियन शासक से की जाती है।
स्मिथ महोदय समुद्रगुप्त को भारतीय इतिहास में नेपोलियन की महानता की तरह ही रेखांकित करना चाहते थे।समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में गुप्त साम्राज्य की सीमाएँ पूरे भारत के साथ विदेशी देशों तक चारों दिशाओं में फैला दी थी। समुद्रगुप्त ने अपने जीवनकाल में सारे युद्ध बङी बहादुरी से लङे थे। नेपोलियन ने सम्पूर्ण यूरोपीय प्रदेश पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन बना लिया था। उसने अपने अनेक आदेश थोपे थे, लेकिन अंत में अनेक बार यूरोपीय संघ से वह पराजित हुआ था।
समुद्रगुप्त ने पराजित राजाओं के साथ उदारतापूर्ण नीति अपनायी थी। समुद्रगुप्त ने विदेशी शत्रुओं के समक्ष अत्यधिक कठोर नीति अपनाई थी। लेकिन वह भारतीय और विदेशी मित्रों का घनिष्ठ मित्र था। समुद्रगुप्त अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कभी भी पराजित नहीं हुआ था। नेपोलियन अनेक बार यूरोपीय संघ से पराजित हुआ था, इसलिए उसने अपने साम्राज्य का त्याग कर दिया था तथा अपने शत्रुओं द्वारा अपमानित हुआ था तथा उसे बंदी बनाया गया था। समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया था, उसने अपने साम्राज्य का कभी त्याग नहीं किया था। साथ ही समुद्रगुप्त का प्रत्येक राज्य द्वारा आदर-सम्मान होता था, क्योंकि उसने प्र्रत्येक राज्य के साथ उदारतापूर्वक नीति अपनाई थी। इसलिए हम नेपोलियन से समुद्रगुप्त की तुलना कर सकते है।
प्रयाग प्रशस्ति -
प्रयाग प्रशस्ति इलाहाबाद के किले में स्थित स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित है। हरिषेण ने समुद्रगुप्त की प्रेरणा से इस प्रयाग प्रशस्ति की रचना की थी। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों का विस्तृत उल्लेख किया गया है तथा इसमें समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व की भी जानकारी मिलती है।
समुद्रगुप्त के सिक्के –
समुद्रगुप्त की अनेक मुद्राएं भी प्राप्त हुई है। इसकी मुद्राएँ बोधगया, बनारस और बयाना आदि क्षेत्रों से प्राप्त हुई है। इन मुुद्राओं में वीणा, अश्वमेध, व्याघ्र, गरुङ, और धनुर्धर अंकित मुद्राएं प्राप्त हुई है। अश्वमेध प्रकार की मुद्राएँ समुद्रगुप्त की दिग्विजय का संकेत देती है। इन मुद्राओं से समुद्रगुप्त के व्यक्तिगत जीवन, विजय व उपलब्धियों, साम्राज्य विस्तार तथा तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियों के बारे में पता चलता है।
समुद्रगुप्त द्वारा अपनाई गई नीतियांँ
1. ग्रहण मोक्षानुग्रह – समुद्रगुप्त ने इस नीति के तहत राज्यों को पहले तो जीता था तथा बाद में उन राज्यों को शासकों को वापस लौटा दिया था। यह नीति उसने दक्षिणापथ के राज्यों के प्रति अपनाई थी।
2. प्रसभोद्धरण – समुद्रगुप्त ने इस नीति के तहत नये राज्यों को बलपूर्वक अपने राज्य में मिलाया था। यह नीति उसने आर्यावर्त के राज्यों के प्रति अपनायी थी।
3. आत्मनिवेदन कन्योपायान गरुत्मदण्डस्व विषय भुक्ति शासन याचना – इस नीति का तात्पर्य है कि बहुत से शासकों ने समुद्रगुप्त के समक्ष समर्पण किया था। कुछ राजाओं ने अपनी कन्याओं का विवाह भी किया था। उन्होंने अपने विषय व भुक्ति में गुप्तों की गरुङ मुद्रा से अंकित आज्ञा-पत्र की याचना की। समुद्रगुप्त ने इस नीति का पालन विदेशी राजाओं के साथ किया।
4. करदानाज्ञाकरण प्रणामागमन – इसका अर्थ है कर एवं दान देना, आज्ञा का पालन करना। राज्यों के शासकों को समुद्रगुप्त के पास अभिवादन हेतु आना पङता था। समुद्रगुप्त ने यह नीति सीमा स्थित राजाओं व गणराज्यों के प्रति अपनायी थी।
5. परचारकीकरण – समुद्रगुप्त ने इस नीति के अन्तर्गत मध्य भारत के आटविक राज्यों के शासकों को अपना सेवक बनाया था।
समुद्रगुप्त का साम्राज्य-विस्तार –
समुद्रगुप्त के साम्राज्य में सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल का कुछ भाग तथा मालवा का कुछ भाग सम्मिलित थे। डाॅ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि ’’समुद्रगुप्त के साम्राज्य में काश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध और गुजरात के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण भारत का सम्मिलित था और छत्तीसगढ़ तथा उङीसा प्रदेश और पूर्वी तट के साथ-साथ दक्षिण में चिंगलपट तक या उससे भी आगे तक के प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे।’’
समुद्रगुप्त की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
(1) साहित्य और कला का संरक्षक – समुद्रगुप्त साहित्य और कला का संरक्षक भी था। वह स्वयं एक उच्च कोटि का विद्वान् था और विद्वानों, कवियों तथा साहित्यकारों का संरक्षक था। अपनी काव्यात्मक रचनाओं के कारण समुद्रगुप्त ने ’कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी। डाॅ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है कि ’समुद्रगुप्त न केवल युद्ध-नीति तथा रण-कौशल में अद्वितीय था, वरन् शास्त्रो में भी उसकी बुद्धि तीव्र थी। वह स्वयं बङा सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगीत बहुत प्रिय थी।’’
समुद्रगुप्त का दरबार उच्च कोटि के विद्वानों से सुशोभित था। ’प्रयाग-प्रशस्ति’ का रचयिता हरिषेण उसके दरबार का सबसे प्रसिद्ध कविराज था। डाॅ. मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु का आश्रयदाता था। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, ’’समुद्रगुप्त ने अपने शास्त्र-ज्ञान से देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा संगीत एवं ललित कलाओं के ज्ञान से नारद तथा तुम्बरु को भी लज्जित कर दिया था।’’
समुद्रगुप्त कला-प्रेमी भी था। संगीत से उसे विशेष प्रेम था। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसे वीणा बजाने का बङा शौक था। उसके कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे सिद्ध होता है कि वह संगीत-प्रेमी था।
(2) धर्म-सहिष्णु – धार्मिक क्षेत्र में समुद्रगुप्त प्राचीन हिन्दू धर्म की मर्यादा को स्थापित करने वाला था। वह हिन्दू शास्त्रों द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलना अपना कर्तव्य समझता था। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था। हिन्दू धर्म का प्रबल समर्थक होते हुए भी उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार और व्यापक था। वह अन्य धर्मों के प्रति अत्यन्त सहिष्णु एवं उदार था। वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु को आश्रय प्रदान किया था। इसी प्रकार उसने लंका के राजा मेघवर्ण को बौद्ध गया में भिक्षुओं के लिए विहार बनवाने की अनुमति देकर अपनी धार्मिक-सहिष्णुता का परिचय दिया था।
समुद्रगुप्त का चरित्र एवं व्यक्तित्व
समुद्रगुप्त एक महान् व्यक्तित्व का धनी था। उसके चरित्र की निम्न विशेषताएँ है –
(1) वीर योद्धा तथा महान् विजेता – समुद्रगुप्त एक वीर योद्धा, कुशल सेनानायक तथा महान् विजेता था। उसके सिक्कों पर अंकित ’पराक्रमांक’ (पराक्रम है पहचान जिसकी), ’व्याघ्रपराक्रमः’ (व्याघ्र के समान पराक्रमी) तथा ’अप्रतिरथ’ (जिसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है) जैसी उपाधियाँ उसके अद्वितीय पराक्रम एवं शूरवीरता की परिचायक हैं।
’प्रयाग-प्रशस्ति’ के अनुसार ’’समुद्रगुप्त सैकङों युद्ध लङने में निपुण था। उसका एकमात्र सहायक उसकी भुजाओं का पराक्रम था।’’
समुद्रगुप्त की गिनती भारत के महान् विजेताओं में की जाती है। उसने अपने पराक्रम एवं सैन्य-शक्ति के बल पर अनेक विजयें प्राप्त कीं तथा एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। वह नेपोलियन बोनापार्ट की भांति साहसी, पराक्रमी, कुशल सेनानायक और युद्ध-संचालन में निपुण था। डाॅ. वी. ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन की संज्ञा दी है, जो सर्वथा उचित है।
(2) गुणसम्पन्न व्यक्ति – समुद्रगुप्त एक गुणसम्पन्न व्यक्ति था। वह उदार और दयालु व्यक्ति था। वह एक दानशील व्यक्ति था तथा दीन-दुःखियों, अनाथों, असहायों आदि को उदारतापूर्वक दान दिया करता था। उसका हृदय बङा कोमल था। भक्ति तथा विनीत भाव से उसका हृदय जीता जा सकता था। वह साधु के लिए कुबेरर परन्तु असाधु का विनाशक था।
(3) योग्य शासक – समुद्रगुप्त एक योग्य शासक भी था। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की तथा उसमें शक्ति एवं व्यवस्था बनाए रखी। उसका प्रशासन अत्यन्त सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित था। वह एक प्रजावत्सल शासक था तथा अपनी प्रजा की नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। वह दीन-दुःखियों, अनाथों, असहायों, निर्धनों आदि को उदारतापूर्वक दान दिया करता था। वह अनावश्यक रक्तपात करने में रुचि नहीं रखता था।
(4) कुशल राजनीतिज्ञ – समुद्रगुप्त एक कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने देश-काल के अनुकूल भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया। जहाँ उसने आर्यावर्त के राज्यों को जीतकर उन्हें अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया, वहाँ उसने दक्षिणापथ के राजाओं के प्रति ’ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति अपनाई। उसने दक्षिणापथ के राजाओं को पराजित कर उन्हें उनके राज्य वापस लौटा दिए तथा उनसे केवल कर लेना ही उचित समझा। यह उसकी दूरदर्शिता तथा राजनीतिक सूझबूझ का परिचायक था। वह जानता था कि पाटलिपुत्र में रहते हुए दक्षिणापथ के राज्यों पर सीधा शासन करना और उनको नियन्त्रण में रखना अत्यन्त कठिन था।
इसी प्रकार समुद्रगुप्त ने सीमान्त राज्यों से भी अपनी अधीनता स्वीकार करवाई और उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया। विदेशी राज्यों के साथ उसने मैत्रीपूर्ण घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किये और अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया।
समुद्रगुप्त की मृत्यु –
समुद्रगुप्त की मृत्यु 380 ईस्वी में पाटलिपुत्र शहर (वर्तमान पटना, बिहार) में हुई थी।
समुद्रगुप्त से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न –
प्र. 1 - समुद्रगुप्त का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर – 335 ईस्वी को, इंद्रप्रस्थ में
प्र. 2 - समुद्रगुप्त के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर – चंद्रगुप्त प्रथम
प्र. 3 - समुद्रगुप्त की माता का क्या नाम था ?
उत्तर – लिच्छवी कुमारी देवी
प्र. 4 - समुद्रगुप्त का शासनकाल कितना था ?
उत्तर – शासनकाल-335-375 ईस्वी
प्र. 5 - भारत का नेपोलियन किसे कहा जाता है ?
उत्तर – समुद्रगुप्त को
प्र. 6 - समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के उपरांत कौनसा यज्ञ किया था ?
उत्तर – अश्वमेध यज्ञ
प्र. 7 - समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख किसमें मिलता है ?
उत्तर – प्रयाग प्रशस्ति
प्र. 8 - समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के कितने राजाओं को पराजित किया था ?
उत्तर – 12 राजाओं को
प्र. 9 - समुद्रगप्त ने देशी राजाओं के साथ कौनसी नीति अपनाई थी ?
उत्तर – ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति
प्र. 10 - प्रयाग प्रशस्ति के कवि कौन थे ?
उत्तर – हरिषेण