सोलंकी राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची:
सोलंकी वंश:
सोलंकी वंश मध्यकालीन भारत का एक राजपूत राजवंश था। गुजरात के सोलंकी वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया था। सोलंकी गोत्र राजपूतों में आता है। सोलंकी राजपूतों का अधिकार गुर्जर देश और कठियावाड राज्यों तक था। ये 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। इन्हे गुर्जर देश का चालुक्य भी कहा जाता था। यह लोग मूलत: सूर्यवंशी व्रात्य क्षत्रिय हैं और दक्षिणापथ के हैं परंतु जैन मुनियों के प्रभाव से यह लोग जैन संप्रदाय में जुड गए। उसके पश्चात भारत सम्राट अशोकवर्धन मौर्य के समय में कान्य कुब्ज के ब्राह्मणो ने ईन्हे पून: वैदिकों में सम्मिलित किया। मूलराज ने 942 से 995 ई. तक शासन किया। 995 से 1008 ई. तक मूलराज का पुत्र चामुण्डाराय अन्हिलवाड़ का शासक रहा। उसके पुत्र दुर्लभराज ने 1008 से 1022 ई. तक शासन किया। दुर्लभराज का भतीजा भीम प्रथम अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।
सोलंकी वंश वीर योद्धाओ का इतिहास:
- दद्दा चालुक्य: दद्दा चालुक्य पहले राजपूत योद्धा थे जिन्होंने गजनवी को सोमनाथ मंदिर लूटने से रोका था।
- भीमदेव द्वित्य: भीमदेव द्वित्य ने मोहम्मद गोरी की सेना को 2 बार बुरी तरह से हराया और मोहम्मद गोरी को दो साल तक गुजरात के कैद खाने में रखा और बाद में छोड़ दिया जिसकी वजह से मोहम्मद गोरी ने तीसरी बार गुजरात की तरफ आँख उठाना तो दूर जुबान पर नाम तक नहीं लिया।
- सोलंकी सिद्धराज जयसिंह: जयसिंह के बारे में तो जितना कहे कम है। जयसिंह ने 56 वर्ष तक गुजरात पर राज किया सिंधदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान का कुछ भाग, सोराष्ट्र, तक इनका राज्य था। सबसे बड़ी बात तो यह है की यह किसी अफगान, और मुग़ल से युद्ध भूमि में हारे नहीं। बल्कि उनको धुल चटा देते थे। सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल ने व्यापार के नए-नए तरीके खोजे जिससे गुजरात और राजस्थान की आर्थिक स्थितिया सुधर गयी गरीबो को काम मिलने लगा और सब को काम की वजह से उनके घर की स्थितियां सुधर गयी।
- पुलकेशी: पुलकेशी महाराष्ट्र, कर्नाटक, आँध्रप्रदेश तक इनका राज्य था। इनके समय भारत में ना तो मुग़ल आये थे और ना अफगान थे उस समय राजपूत राजा आपस में लड़ाई करते थे अपना राज्य बढ़ाने के लिए।
- किल्हनदेव सोलंकी (टोडा-टोंक): किल्हनदेव सोलंकी ने दिल्ली पर हमला कर बादशाह की सारी बेगमो को उठाकर टोंक के नीच जाति के लोगो में बाट दिया। क्यूंकि दिल्ली का सुलतान बेगुनाह हिन्दुओ को मारकर उनकी बीवी, बेटियों, बहुओ को उठाकर ले जाता था। इनका राज्य टोंक, धर्मराज, दही, इंदौर, मालवा तक फैला हुआ था।
- बल्लू दादा: मांडलगढ़ के बल्लू दादा ने अकेले ही अकबर के दो खास ख्वाजा अब्दुलमाजिद और असरफ खान की सेना का डट कर मुकाबला किया और मौत के घाट उतार दिया। हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के साथ युद्ध में काम आये। बल्लू दादा के बाद उनके पुत्र नंदराय ने मांडलगढ़–मेवाड की कमान अपने हाथों में ली इन्होने मांडलगढ़ की बहुत अच्छी तरह देखभाल की लेकिन इनके समय महाराणा प्रताप जंगलो में भटकने लगे थे और अकबर ने मान सिंह के साथ मिलकर मांडलगढ़ पर हमला कर दिया और सभी सोलंकियों ने उनका मुकाबला किया और लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।
- वच्छराज सोलंकी: वच्छराज सोलंकी ने गौ हथ्यारो को अकेले ही बिना सैन्य बल के लड़ते हुए धड काटने के बाद भी 32 किलोमीटर तक लड़ते हुए गए अपने घोड़े पर और गाय चोरो को एक भी गाय नहीं ले जने दी और सब को मौत के घात उतार कर अंत में वीरगति को प्राप्त हो गए जिसकी वजह से आज भी गुजरात की जनता इनकी पूजती है और राधनपुर-पालनपुर में इनका एक मंदिर भी बनाया हुआ है।
- भीमदेव प्रथम: भीमदेव प्रथम जब 10-11 वर्ष के थे तब इन्होने अपने तीरे अंदाज का नमूना महमूद गजनवी को कम उमर में ही दिखा दिया था महमूद गजनवी को कोई घायल नहीं कर पाया लेकिन इन्होने दद्दा चालुक्य की भतीजी शोभना चालुक्य (शोभा) के साथ मिलकर महमूद गजनवी को घायल कर दिया और वापस गजनी-अफगानिस्तान जाने पर विवश कर दिया जिसके कारण गजनवी को सोमनाथ मंदिर लूटने का विचार बदलकर वापस अफगानिस्तान जाना पड़ा।
- कुमारपाल: कुमारपाल ने जैन धर्म की स्थापना की और जैनों का साथ दिया। गुजरात और राजस्थान के व्यापारियों को इन्होने व्यापार करने के नए–नए तरीके बताये और वो तरीके राजस्थान के राजाओ को भी बेहद पसंद आये और इससे दोनों राज्यों की शक्ति और मनोबल और बढ़ गया। गुजरात, राजस्थान की जनता को काम मिलने लगे जिससे उनके घरो का गुजारा होने लगा।
- राव सुरतान: राव सुरतान के समय मांडू सुल्तान ने टोडा पर अधिकार कर लिया तब बदनोर–मेवाड की जागीर मिली राणा रायमल उस समय मेवाड के उतराधिकारी थे। राव सुरतान की बेटी ने शर्त रखी ‘ मैं उसी राजपूत से शादी करुँगी जो मुझे मेरी जनम भूमि टोडा दिलाएगा। तब राणा रायमल के बेटे राणा पृथ्वीराज ने उनका साथ दिया पृथ्वीराज बहुत बहादूर था और जोशीला बहुत ज्यादा था। चित्तोड़ के राणा पृथ्वीराज, राव सुरतान सिंह और राजकुमारी तारा बाई ने टोडा-टोंक पर हमला किया और मांडू सुलतान को तारा बाई ने मौत के घाट उतार दिया और टोडा पर फिर से सोलंकियों का राज्य कायम किया। तारा बाई बहुत बहादूर थी।
- उसने अपने वचन के मुताबिक राणा पृथ्वीराज से विवाह किया। ऐसी सोलंकिनी राजकुमारी को सत सत नमन। यहाँ पर मान सिंह और अकबर खुद आया था। युद्ध करने और पुरे टोडा को 1 लाख मुगलों ने चारो और से गैर लिया। सोलंकी सैनिको ने भी अकबर की सेना का सामना किया और अकबर के बहुत से सैनिको को मार गिराया और अंत में सबने लड़ते हुए वीरगति पाई।
सोलंकी वंश की कला साहित्य:
मरु-गुर्जर वास्तुकला, या "सोलाकि शैली", उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला की एक शैली है जो गुजरात और राजस्थान में 11 वीं से 13 वीं शताब्दी में, चौलुक्य वंश (या सोलाची वंश) के तहत उत्पन्न हुई थी। यद्यपि हिंदू मंदिर वास्तुकला में एक क्षेत्रीय शैली के रूप में उत्पन्न हुआ, यह जैन मंदिरों में विशेष रूप से लोकप्रिय हो गया और मुख्य रूप से जैन संरक्षण के तहत, बाद में पूरे भारत में और दुनिया भर के समुदायों में फैल गया। अधिकांश राजवंश शासक शैव थे, हालाँकि उन्होंने जैन धर्म का संरक्षण भी किया था। कहा जाता है कि राजवंश के संस्थापक मूलराज ने दिगम्बर जैनियों के लिए मूलवत्सिका मंदिर और श्वेताम्बर जैनियों के लिए मूलनाथ-जिनदेव मंदिर का निर्माण किया था।
दिलवाड़ा मंदिरों और मोढ़ेरा सूर्य मंदिर का सबसे पहले निर्माण भीम प्रथम के शासनकाल के दौरान किया गया था। लोकप्रिय परंपरा के अनुसार, उनकी रानी उदयमती ने भी रानी के चरण-कमल की स्थापना की थी। कुमारपाल ने अपने जीवन में किसी समय जैन धर्म का संरक्षण करना शुरू किया, और उसके बाद के जैन खातों ने उन्हें जैन धर्म के अंतिम महान शाही संरक्षक के रूप में चित्रित किया। चालुक्य शासकों ने मुस्लिम व्यापारियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए मस्जिदों का भी समर्थन किया।