भूकम्पीय तरंगों के आधार पर स्थलमंडल (Lithosphere) की मोटाई लगभग 100 किमी मापी गई है। यह मोटाई एक औसत है, और विभिन्न क्षेत्रों में यह भिन्न हो सकती है। महाद्वीपीय क्षेत्रों में, जहाँ भू-पर्पटी (Crust) मोटी होती है, स्थलमंडल की मोटाई अधिक (लगभग 200 किमी या उससे अधिक) हो सकती है। इसके विपरीत, महासागरीय क्षेत्रों में, जहाँ भू-पर्पटी पतली होती है, स्थलमंडल की मोटाई कम (लगभग 50-100 किमी) हो सकती है। भूकम्पीय तरंगों, विशेष रूप से S-तरंगों की गति में परिवर्तन का उपयोग करके स्थलमंडल की निचली सीमा का पता लगाया जाता है। स्थलमंडल ठोस और भंगुर होता है, जबकि इसके नीचे स्थित एस्थेनोस्फीयर (Asthenosphere) आंशिक रूप से पिघला हुआ और अधिक लचीला होता है। S-तरंगें ठोस माध्यम से गुजर सकती हैं, लेकिन तरल या आंशिक रूप से पिघले हुए माध्यम से नहीं। इसलिए, जब S-तरंगें स्थलमंडल से एस्थेनोस्फीयर में प्रवेश करती हैं, तो उनकी गति धीमी हो जाती है या वे पूरी तरह से गायब हो जाती हैं। इस गति में परिवर्तन को मापकर स्थलमंडल की मोटाई का अनुमान लगाया जाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि स्थलमंडल में भू-पर्पटी और ऊपरी मैंटल का सबसे ऊपरी भाग शामिल होता है, जो एक साथ एक कठोर परत बनाते हैं। यह परत प्लेट टेक्टोनिक्स की प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि स्थलमंडलीय प्लेटें एस्थेनोस्फीयर के ऊपर तैरती हैं और धीरे-धीरे चलती हैं, जिससे भूकंप, ज्वालामुखी और पर्वत निर्माण जैसी भूवैज्ञानिक घटनाएं होती हैं।