जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। वे इक्ष्वाकु वंश के राजा अश्वसेन के पुत्र थे और वाराणसी (वर्तमान बनारस) में उनका जन्म हुआ था। उन्हें भगवान पार्श्वनाथ या पार्श्व भी कहा जाता है। पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन त्याग दिया और संन्यास ग्रहण किया। कठोर तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया। पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (गैर-कब्जा) और ब्रह्मचर्य (शुद्धता) के पांच व्रतों का उपदेश दिया। हालांकि महावीर स्वामी को जैन धर्म का अंतिम तीर्थंकर माना जाता है, पार्श्वनाथ का योगदान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने जैन धर्म के दर्शन और आचरण को एक मजबूत आधार प्रदान किया, जिस पर महावीर स्वामी ने आगे चलकर उसे और अधिक विस्तृत रूप दिया। पार्श्वनाथ के अनुयायी आज भी भारत में मौजूद हैं और उनके उपदेशों का पालन करते हैं। उनके सिद्धांतों में सभी जीवित प्राणियों के प्रति करुणा और सम्मान की भावना निहित है।

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