जैन परम्परा के अनुसार, इस धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। तीर्थंकर का अर्थ है 'तीर्थ' (घाट) बनाने वाला, अर्थात् भवसागर से पार उतारने वाला। जैन धर्म में, ये तीर्थंकर आध्यात्मिक शिक्षक होते हैं जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना के माध्यम से पूर्ण ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) प्राप्त किया है और संसार को सत्य का मार्ग दिखाया है। ये 24 तीर्थंकर विभिन्न युगों में हुए हैं, और प्रत्येक ने धर्म के सिद्धांतों को पुनर्जीवित और प्रचारित किया है। पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ थे, जिन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है, और उन्हें जैन धर्म का संस्थापक माना जाता है। 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी थे, जो छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए थे और उन्होंने जैन धर्म को व्यापक रूप से फैलाया। प्रत्येक तीर्थंकर का अपना प्रतीक चिन्ह होता है, जो उन्हें पहचानने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, ऋषभनाथ का प्रतीक बैल, अजितनाथ का हाथी, संभवनाथ का घोड़ा और महावीर स्वामी का सिंह है। इन प्रतीकों का जैन कला और शास्त्रों में महत्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्म में तीर्थंकरों की पूजा का विशेष महत्व है। उन्हें आदर्श माना जाता है और उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का पालन करके मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। जैन मंदिर तीर्थंकरों की मूर्तियों से सुशोभित होते हैं, और भक्त उनकी प्रार्थना और ध्यान करते हैं। तीर्थंकरों की शिक्षाएं अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (इंद्रियों पर नियंत्रण) और अपरिग्रह (गैर-आसक्ति) के पांच प्रमुख व्रतों पर आधारित हैं। ये व्रत जैन धर्म के आचरण का आधार हैं और सभी जैन अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण हैं। संक्षेप में, 24 तीर्थंकर जैन धर्म के मूल आधार हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान और तपस्या से मानवता को मुक्ति का मार्ग दिखाया। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी जैन धर्म के अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

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