जैन धर्म में जन्म और मृत्यु का चक्र कर्मफल के सिद्धांत पर आधारित है। आपके दिए गए उत्तर में यह बात सही है, लेकिन इसे और अधिक विस्तार से समझने के लिए, निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है: कर्म का महत्व: जैन धर्म में कर्म को एक भौतिक पदार्थ माना जाता है जो आत्मा से चिपक जाता है। यह कर्म ही आत्मा को संसार में बांधे रखता है और जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण बनता है। कर्मों के फल के अनुसार ही आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेती है। कर्मों के प्रकार: जैन धर्म में कर्मों को दो मुख्य प्रकारों में बांटा गया है: घातिया कर्म: ये कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख, और वीर्य) को बाधित करते हैं। अघातिया कर्म: ये कर्म आत्मा के भौतिक शरीर और जीवन की परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। कर्मों का बंधन (आस्रव): आत्मा में कर्मों का बंधन विचारों, वाणी और कार्यों के माध्यम से होता है। जब हम राग, द्वेष, मोह, या अज्ञानता से प्रेरित होकर कार्य करते हैं, तो हम नए कर्मों को आकर्षित करते हैं। कर्मों का क्षय (निर्जरा): जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मों का क्षय करना आवश्यक है। यह तपस्या, ध्यान, संयम, और सही ज्ञान के माध्यम से किया जा सकता है। मोक्ष: जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त हो जाती है, तो वह मोक्ष प्राप्त करती है और जन्म-मृत्यु के चक्र से हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है। संक्षेप में, जैन धर्म में जन्म और मृत्यु का कारण कर्मों का बंधन और फल है। मोक्ष प्राप्ति के लिए इन कर्मों का क्षय करना आवश्यक है, जिसके लिए सही ज्ञान, श्रद्धा और आचरण का पालन करना होता है।

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