जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। उन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है "प्रथम भगवान"। जैन मान्यताओं के अनुसार, ऋषभदेव इक्ष्वाकु वंश के राजा थे और अयोध्या में उनका जन्म हुआ था। ऋषभदेव का जीवन जैन दर्शन के सिद्धांतों का प्रतीक है। उन्होंने सांसारिक सुखों का त्याग कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए तपस्या की। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने लाखों वर्षों तक तपस्या की, जिसके बाद उन्हें केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त हुआ। जैन धर्म में, तीर्थंकर वे आध्यात्मिक शिक्षक होते हैं जो संसार के बंधन से मुक्त हो चुके हैं और दूसरों को भी मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे और उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को स्थापित किया। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (शुद्धता), और अपरिग्रह (गैर-संलग्नता) जैसे पांच प्रमुख व्रतों का उपदेश दिया। ऋषभदेव का योगदान जैन धर्म के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने न केवल एक धर्म की स्थापना की, बल्कि एक ऐसी जीवन शैली का भी मार्ग दिखाया जो आत्म-अनुशासन, नैतिकता और सभी जीवों के प्रति सम्मान पर आधारित है। उनकी शिक्षाएं आज भी जैन समुदाय को प्रेरित करती हैं और मानव जाति के लिए एक मूल्यवान मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।

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