जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर, पार्श्वनाथ, का प्रतीक चिन्ह सर्प था। यह सर्प न केवल पार्श्वनाथ की पहचान है, बल्कि जैन धर्म में इसके गहरे अर्थ भी हैं। सर्प, विशेष रूप से फणधारी सर्प, सुरक्षा और जागरूकता का प्रतीक है। किंवदंती है कि पार्श्वनाथ को एक सर्प ने ध्यान करते समय बचाया था। कमठ नामक एक दुष्ट व्यक्ति ने पार्श्वनाथ को परेशान करने की कोशिश की, लेकिन नागराज धरणेन्द्र ने अपनी पत्नी पद्मावती के साथ मिलकर उन्हें बचाया और उनके ऊपर अपने फणों से छाया की। इस घटना के कारण, सर्प पार्श्वनाथ के साथ जुड़ गया और उनके अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया। सर्प का प्रतीक यह भी दर्शाता है कि पार्श्वनाथ ने अपनी तपस्या के दौरान सांसारिक इच्छाओं और बंधनों पर विजय प्राप्त की। सर्प का विष मोह और आसक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, और पार्श्वनाथ ने इन नकारात्मक गुणों पर नियंत्रण पा लिया था। पार्श्वनाथ, जैन धर्म में भगवान महावीर से पहले हुए महत्वपूर्ण तीर्थंकरों में से एक थे। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों का उपदेश दिया। पार्श्वनाथ के अनुयायी उन्हें श्रद्धा से पूजते हैं, और सर्प का प्रतीक उन्हें उनके त्याग, करुणा और सुरक्षा की याद दिलाता है।

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