प्रथम जैन संगीति का मुख्य कार्य 12 अंगों का प्रणयन, जैन धर्म का दो भागों में विभाजन था, और साथ ही बिखरे हुए जैन आगमों को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध करना था। विस्तार में: यह संगीति लगभग 300 ईसा पूर्व पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में आयोजित की गई थी। जैन धर्म के अनुयायियों का एक बड़ा वर्ग दिगंबर संप्रदाय का था, जो भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत चला गया था। उनके लौटने पर, श्वेतांबर संप्रदाय के अनुयायियों (जिन्होंने संगीति में भाग लिया था) ने जैन धर्म के मूल सिद्धांतों से विचलन का आरोप लगाया। संगति के मुख्य कार्य: 12 अंगों का प्रणयन (संकलन): यह संगति जैन धर्म के महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथों - आगमों - को व्यवस्थित करने और उन्हें लिपिबद्ध करने के लिए आयोजित की गई थी। माना जाता है कि महावीर स्वामी के उपदेश मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे थे। इस संगति में, इन उपदेशों को 12 मुख्य भागों में संकलित किया गया, जिन्हें 'अंग' कहा जाता है। यद्यपि कुछ ग्रंथों का अस्तित्व खो गया, लेकिन जो बचे, वे जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय के लिए आधार बने। जैन धर्म का दो भागों में विभाजन (मान्यता): दक्षिण भारत से लौटे दिगंबरों ने 12 अंगों के प्रणयन को मान्यता देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि मूल शिक्षाएं खो गई हैं। इस असहमति ने जैन धर्म को दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित कर दिया: श्वेतांबर (श्वेत वस्त्र पहनने वाले) और दिगंबर (वस्त्रों का त्याग करने वाले)। आगमों का लिपिबद्ध करना: यद्यपि मौखिक परंपरा जैन धर्म में महत्वपूर्ण थी, लेकिन संगति ने आगमों को लिपिबद्ध करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया, जिससे उन्हें संरक्षित करने और आगे प्रसारित करने में मदद मिली। इस प्रकार, प्रथम जैन संगति जैन धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने न केवल धार्मिक ग्रंथों को संकलित और संरक्षित किया, बल्कि संप्रदायों के विभाजन को भी जन्म दिया।

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