चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल 380-415 ईसवी तक था। यह गुप्त साम्राज्य के स्वर्ण युग का एक महत्वपूर्ण काल था। चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिन्हें विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है, समुद्रगुप्त के पुत्र थे और उन्होंने अपने पिता की विस्तारवादी नीति को जारी रखा। उनके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य ने कला, साहित्य, विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की। उन्होंने मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र जैसे क्षेत्रों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया, जिससे पश्चिमी व्यापार मार्गों पर गुप्त नियंत्रण स्थापित हो गया। इस नियंत्रण से साम्राज्य को आर्थिक रूप से बहुत लाभ हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नवरत्न नामक विद्वानों की मंडली थी, जिनमें कालिदास जैसे महान कवि और विद्वान शामिल थे। फाह्यान नामक चीनी बौद्ध भिक्षु ने भी उनके शासनकाल में भारत की यात्रा की और अपने यात्रा वृत्तांतों में गुप्त साम्राज्य की समृद्धि और शासन व्यवस्था का वर्णन किया। उनकी सैन्य सफलताओं, कुशल प्रशासन और सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय माना जाता है। उन्होंने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की, जो भारतीय इतिहास में एक महान और न्यायप्रिय राजा के प्रतीक के रूप में स्थापित हो गई।

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