अकबर का अंतिम सैन्य अभियान असीरगढ़ का युद्ध (1601 ई.) था, लेकिन इसके पीछे की कहानी और परिणाम इसे और भी महत्वपूर्ण बनाते हैं। असीरगढ़ का किला, खानदेश में स्थित, एक अभेद्य दुर्ग माना जाता था और इसे "दक्कन का द्वार" भी कहा जाता था। इस किले का महत्व सामरिक रूप से बहुत अधिक था क्योंकि यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच व्यापार और सैन्य आवागमन को नियंत्रित करता था। अकबर ने इस किले को जीतने का फैसला तब किया जब खानदेश के शासक, मीरन बहादुर शाह, ने मुगल आधिपत्य को मानने से इनकार कर दिया। अकबर ने 1599 में असीरगढ़ को घेर लिया। यह घेराबंदी लगभग दो साल तक चली। असीरगढ़ की घेराबंदी लंबी चलने के कई कारण थे: किले की मजबूत रक्षा: असीरगढ़ की भौगोलिक स्थिति और मजबूत किलेबंदी ने इसे जीतना बहुत मुश्किल बना दिया था। मीरण बहादुर शाह का प्रतिरोध: मीरण बहादुर शाह ने मुगलों के सामने डटकर मुकाबला किया और किले के अंदर रसद आपूर्ति बरकरार रखी। अंततः, 1601 में, अकबर ने छल और रिश्वत का सहारा लिया। ऐसा माना जाता है कि अकबर ने मीरण बहादुर शाह के अधिकारियों को रिश्वत देकर उन्हें अपनी तरफ कर लिया, जिसके कारण बहादुर शाह को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। असीरगढ़ की जीत अकबर के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसने दक्कन में मुगल प्रभाव को स्थापित करने में मदद की। हालांकि, इस अभियान में छल का इस्तेमाल, अकबर के शासनकाल पर एक दाग के रूप में भी देखा जाता है। यह अकबर का अंतिम सैन्य अभियान था और इसके बाद वह अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने और प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने लगा।

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