अकबर ने सम्राट बनने पर बैरम खाँ को खान-ए-खाना की उपाधि दी थी। बैरम खाँ मुगल साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण वफादार और संरक्षक थे। उन्होंने हुमायूँ के शासनकाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उनकी मृत्यु के बाद अकबर को सिंहासन दिलाने में भी उनकी अहम भूमिका थी। जब अकबर 1556 में मात्र 13 वर्ष की आयु में सम्राट बने, तब बैरम खाँ को उनका संरक्षक (रीजेंट) नियुक्त किया गया। खान-ए-खाना का अर्थ होता है "सरदारों का सरदार" या "घरों का मालिक"। यह उपाधि मुगल साम्राज्य में उच्च पद और प्रतिष्ठा का प्रतीक थी। बैरम खाँ को यह उपाधि उनकी असाधारण सैन्य और प्रशासनिक क्षमताओं के सम्मान में दी गई थी। उन्होंने अकबर की कम उम्र में साम्राज्य को सफलतापूर्वक चलाने और उसे मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पानीपत की दूसरी लड़ाई (1556) में हेमू को हराने में बैरम खाँ की भूमिका निर्णायक थी, जिसने मुगल साम्राज्य की नींव को और मजबूत किया। बैरम खाँ ने लगभग चार वर्षों (1556-1560) तक अकबर के संरक्षक के रूप में कार्य किया। हालांकि, बाद में अकबर और बैरम खाँ के बीच मतभेद हो गए, जिसके कारण बैरम खाँ को अपने पद से हटना पड़ा और उन्हें हज के लिए मक्का जाने का आदेश दिया गया। रास्ते में, 1561 में उनकी हत्या कर दी गई। इसलिए, सिर्फ खान-ए-खाना की उपाधि देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह उपाधि क्यों दी गई, बैरम खाँ की भूमिका क्या थी, और बाद में उनके साथ क्या हुआ, यह सब जानना भी महत्वपूर्ण है।

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