जैन धर्म के 17वें तीर्थंकर कुन्थुनाथ थे। वे इक्ष्वाकु वंश में जन्मे थे और उनका जन्म हस्तिनापुर में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा शूरसेन और माता का नाम श्रीकांता देवी था। कुन्थुनाथ ने संसार की नश्वरता को समझकर युवावस्था में ही दीक्षा ले ली थी। उन्होंने कठोर तपस्या की और कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। कुन्थुनाथ ने अपने अनुयायियों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (गैर-आसक्ति) के पांच व्रतों का पालन करने का उपदेश दिया। उन्होंने कर्म के सिद्धांत और पुनर्जन्म पर जोर दिया। उनके उपदेशों ने लोगों को नैतिक और आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। जैन धर्म में तीर्थंकरों का विशेष महत्व है। वे आध्यात्मिक गुरु होते हैं जिन्होंने अपनी तपस्या और ज्ञान से निर्वाण प्राप्त किया है और दूसरों को भी मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। कुन्थुनाथ ने भी अपने जीवनकाल में अनेक लोगों को सही मार्ग दिखाया और जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया। उनका जीवन त्याग, तपस्या और ज्ञान का प्रतीक है। इसलिए, कुन्थुनाथ न केवल 17वें तीर्थंकर थे, बल्कि जैन धर्म के महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक थे, जिन्होंने अपने उपदेशों से समाज को एक नई दिशा दी।

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