जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है, यह सत्य है, लेकिन इसे और विस्तार से समझना महत्वपूर्ण है। जैन धर्म एक अनीश्वरवादी दर्शन है, जिसका अर्थ है कि यह किसी सृष्टिकर्ता या पालनकर्ता ईश्वर की अवधारणा को स्वीकार नहीं करता।
आत्मा की प्रधानता: जैन धर्म में, ब्रह्मांड शाश्वत है और स्वयं-विनियमित है। इसमें किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। जैन धर्म का मुख्य केंद्र बिंदु आत्मा (जीव) है। हर जीवित प्राणी (मनुष्य, पशु, पौधे, सूक्ष्म जीव) में एक आत्मा होती है।
कर्म का महत्व: जैन धर्म कर्म सिद्धांत पर आधारित है। कर्म एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा को संसार में बांधती है। अच्छे कर्मों से आत्मा शुद्ध होती है, जबकि बुरे कर्मों से आत्मा में बंधन बढ़ते हैं।
आत्म-अनुशासन और मोक्ष: जैन धर्म का लक्ष्य कर्मों से मुक्ति पाना है और मोक्ष (कैवल्य) प्राप्त करना है। यह आत्म-अनुशासन, अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के माध्यम से संभव है।
तीर्थंकर: जैन धर्म में तीर्थंकरों का महत्वपूर्ण स्थान है। तीर्थंकर वे आध्यात्मिक शिक्षक होते हैं जिन्होंने कर्मों पर विजय प्राप्त की है और मोक्ष प्राप्त किया है। वे अन्य लोगों को भी मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें ऋषभनाथ पहले और महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे।
देव और देवियाँ: हालांकि जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है, लेकिन जैन ब्रह्मांड विज्ञान में देव और देवियों का उल्लेख है। ये देव और देवियाँ कर्म के फल के अनुसार विभिन्न लोकों में निवास करते हैं, लेकिन वे सृष्टिकर्ता या मुक्तिदाता नहीं हैं। वे आत्मा से ऊँचे नहीं है, आत्मा के सामान ही है।
अनेकांतवाद: जैन धर्म अनेकांतवाद के सिद्धांत का पालन करता है, जो कहता है कि सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। इसका अर्थ है कि किसी भी वस्तु या विचार को पूर्ण रूप से समझना मुश्किल है, और हर दृष्टिकोण में कुछ सत्य हो सकता है।
संक्षेप में, जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है, क्योंकि यह आत्मा, कर्म और आत्म-अनुशासन पर केंद्रित है। इसका लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, जिसके लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करने होते हैं।