जैन धर्म के अनुसार निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है, यह एक मूलभूत सिद्धांत है। त्रिरत्न, अर्थात् सम्यक दर्शन (सही ज्ञान), सम्यक ज्ञान (सही श्रद्धा), और सम्यक चरित्र (सही आचरण), जैन धर्म के आध्यात्मिक पथ का सार हैं। आइए इन्हें और विस्तार से समझें:
सम्यक दर्शन (सही ज्ञान): यह तत्वों के सच्चे स्वरूप को समझने और उन पर विश्वास करने से संबंधित है। जैन दर्शन के अनुसार, ब्रह्मांड विभिन्न तत्वों से बना है, और उनके बारे में सही ज्ञान मोक्ष की ओर पहला कदम है। इसमें तीर्थंकरों (आत्मज्ञान प्राप्त गुरुओं) और उनके उपदेशों पर श्रद्धा रखना भी शामिल है। संक्षेप में, यह संसार और स्वयं के बारे में सत्य को जानना और मानना है।
सम्यक ज्ञान (सही श्रद्धा): केवल जानकारी पर्याप्त नहीं है; उस जानकारी पर दृढ़ विश्वास होना भी आवश्यक है। सम्यक ज्ञान का अर्थ है जैन सिद्धांतों और दर्शन को बिना किसी संदेह के स्वीकार करना। यह उन सिद्धांतों में निहित मूल्यों को हृदय से स्वीकार करने और उनके अनुसार जीने की इच्छा रखने से जुड़ा है। यह विश्वास ज्ञान को क्रिया में बदलने की प्रेरणा देता है।
सम्यक चरित्र (सही आचरण): ज्ञान और श्रद्धा के बाद आता है सही आचरण। इसका अर्थ है अपने जीवन में अहिंसा (अहिंसा), सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (संयम), और अपरिग्रह (गैर-आसक्ति) जैसे सिद्धांतों का पालन करना। सम्यक चरित्र का पालन करने के लिए मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहना आवश्यक है। यह एक निरंतर अभ्यास है जिसमें आत्म-नियंत्रण और नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता शामिल है।
इन तीनों रत्नों का एक साथ पालन करने से कर्मों का क्षय होता है, जो आत्मा को सांसारिक बंधनों से मुक्त करने में मदद करता है। निर्वाण, या मोक्ष, तब प्राप्त होता है जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त हो जाती है और अपनी स्वाभाविक, शुद्ध अवस्था में लौट आती है। इसलिए, जैन धर्म में, त्रिरत्न का अनुशीलन निर्वाण प्राप्ति का अनिवार्य मार्ग है।
Answered :- 2022-12-09 07:10:10
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