जैन धर्म में आत्मा की मान्यता है, यह सही है, लेकिन इसे थोड़ा और विस्तार से समझा जा सकता है। जैन धर्म एक अनीश्वरवादी दर्शन है, जिसका अर्थ है कि यह किसी सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास नहीं करता है। इसके मूल में आत्मा की अवधारणा है, जिसे 'जीव' कहा जाता है।
जीव का स्वरूप: जैन धर्म के अनुसार, प्रत्येक जीवित प्राणी - मनुष्य, पशु, पौधे, सूक्ष्म जीव, और यहां तक कि पत्थर और पानी जैसी निर्जीव वस्तुओं में भी आत्मा (जीव) विद्यमान है। यह जीव अनादि और अनंत है, जिसका अर्थ है कि इसका कोई आदि और अंत नहीं है।
कर्म और बंधन: जैन धर्म में, कर्म को केवल क्रिया नहीं माना जाता, बल्कि सूक्ष्म कणों के रूप में देखा जाता है जो आत्मा से चिपक जाते हैं और इसे संसार में बांधते हैं। अच्छे कर्मों से शुभ फल मिलते हैं, जबकि बुरे कर्मों से अशुभ फल मिलते हैं।
मोक्ष: जैन धर्म का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, जो आत्मा को कर्मों के बंधन से मुक्त करना है। यह केवल सम्यक् दर्शन (सही दृष्टिकोण), सम्यक् ज्ञान (सही ज्ञान) और सम्यक् चरित्र (सही आचरण) के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, जिन्हें जैन धर्म के तीन रत्न कहा जाता है।
अनेकांतवाद: जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत अनेकांतवाद है, जो कहता है कि सत्य को पूर्ण रूप से केवल एक दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता। हर वस्तु में अनगिनत पहलू होते हैं, और सत्य को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा (किसी भी जीव को नुकसान न पहुंचाना) सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह न केवल शारीरिक हिंसा से परहेज करने पर जोर देता है, बल्कि विचारों और वाणी में भी अहिंसक होने पर जोर देता है।
संक्षेप में, जैन धर्म आत्मा की मान्यता पर आधारित एक जटिल दर्शन है, जो कर्म, बंधन और मोक्ष के सिद्धांतों पर प्रकाश डालता है। यह हमें अपने कर्मों के प्रति जागरूक रहने और एक अहिंसक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है, ताकि हम अपनी आत्मा को मुक्त कर सकें।
Answered :- 2022-12-09 07:01:32
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