जैन धर्म के 13वें तीर्थंकर विमलनाथ थे। वे इक्ष्वाकु वंश में राजा कृतवर्मा और रानी श्यामादेवी के पुत्र के रूप में माघ शुक्ल तृतीया को कंपिला नगरी में जन्मे थे। उनका चिन्ह शूकर (सूअर) है। विमलनाथ जी ने अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फलस्वरूप तीर्थंकर पद प्राप्त किया। जैन धर्म के अनुसार, तीर्थंकर वे व्यक्ति होते हैं जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करते हैं और फिर दूसरों को मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। विमलनाथ जी ने सांसारिक बंधनों को त्याग कर कठोर तपस्या की और अंततः कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करने का उपदेश दिया। उनका मानना था कि इन व्रतों का पालन करके मनुष्य अपने कर्मों को शुद्ध कर सकता है और मोक्ष की ओर बढ़ सकता है। विमलनाथ जी का जीवन जैन धर्म के अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। वे हमें सिखाते हैं कि त्याग, तपस्या और सही मार्ग का अनुसरण करके हम भी अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

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