जैनियों द्वारा प्रारम्भ में 'प्राकृत भाषा' को अपनाया गया था। यह उत्तर सही है, लेकिन इसे थोड़ा और विस्तृत किया जा सकता है:
जैन धर्म के प्रारंभिक दौर में, प्राकृत भाषा को व्यापक रूप से अपनाया गया था। प्राकृत, संस्कृत से विकसित एक जनभाषा थी, जो आम लोगों के लिए समझने में आसान थी। जैन धर्म के उपदेशों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए, इसे एक प्रभावी माध्यम के रूप में चुना गया।
यहां कुछ अतिरिक्त विवरण दिए गए हैं:
विशिष्ट प्राकृत: जैन साहित्य में, विशेष रूप से 'अर्धमागधी' प्राकृत का उपयोग हुआ। यह भाषा विशेष रूप से जैन ग्रंथों को लिखने और प्रचारित करने के लिए विकसित की गई थी।
कारण: प्राकृत को अपनाने का मुख्य कारण था कि यह भाषा आम जनता द्वारा समझी जाती थी, जबकि संस्कृत मुख्यतः ब्राह्मणों और उच्च वर्ग तक सीमित थी। जैन धर्म का उद्देश्य सभी वर्गों के लोगों तक पहुंचना था, इसलिए प्राकृत एक तार्किक विकल्प था।
साहित्य: जैन धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथ, जैसे कि आगम सूत्र, प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं।
प्रभाव: प्राकृत भाषा का उपयोग जैन धर्म के प्रसार में बहुत सहायक सिद्ध हुआ, खासकर प्रारंभिक शताब्दियों में।
संक्षेप में, जैनियों ने प्राकृत भाषा को इसलिए अपनाया क्योंकि यह जनभाषा थी, जिससे उनके उपदेश व्यापक रूप से फैल सके और हर वर्ग के लोगों तक पहुंच सके। अर्धमागधी प्राकृत का विशेष रूप से जैन साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।
Answered :- 2022-12-09 07:01:32
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