जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त हुआ था, यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो उनके जीवन और जैन धर्म में उनके महत्व को दर्शाता है। पार्श्वनाथ, जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर थे, और उन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता है, जबकि अन्य तीर्थंकरों के जीवन के बारे में ऐतिहासिक स्पष्टता कम है। पार्श्वनाथ का जीवनकाल लगभग 877 ईसा पूर्व से 777 ईसा पूर्व माना जाता है। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर संन्यास लिया था। 70 वर्षों तक कठोर तपस्या और साधना करने के बाद, उन्होंने सम्मेद शिखर पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। यह पर्वत, जिसे अब पार्श्वनाथ पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के सिद्धांतों को सुव्यवस्थित किया और अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (गैर-आसक्ति) के चार व्रतों का उपदेश दिया। महावीर स्वामी ने बाद में इसमें ब्रह्मचर्य का पांचवां व्रत जोड़ा। पार्श्वनाथ के उपदेशों ने जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हुई। पार्श्वनाथ की 100 वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्ति, जैन धर्म में दीर्घायु और आध्यात्मिक साधना के महत्व को भी दर्शाती है। यह माना जाता है कि लंबे समय तक तपस्या और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

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